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श्राद्धविधि प्रकरणम्
97 पूजा में पहनने के वस्त्र की विधि : ___नहा लेने के बाद पवित्र, कोमल और सुगंधित काषायिकादि वस्त्र से अंग पोंछ, धोती उतार, दूसरा पवित्र वस्त्र पहनकर इत्यादि युक्ति से धीरे-धीरे चलतेजलार्द्र-भूमि को स्पर्श न करते पवित्र स्थान में आना। उत्तरदिशा को मुख करके चमकदार, नया, पूर्ण,अजोड़ और चौड़ा ऐसे दो श्वेत वस्त्र में से एक पहिनना तथा दूसरा ओढ़ना। कहा है कि
विशुद्धिं वपुषः कृत्वा, यथायोगं जलादिभिः।
धौतवने च सीते द्वे, विशुद्धे धूपधूपिते ।।१२।।
अवसर के अनुसार जलादिक से शरीर शुद्ध करके धोये हुए, धूप से सुगंधित किये हुए और पवित्र ऐसे दो वस्त्र धारण करना। लोक में भी कहा है कि, 'हे राजन्! देवपूजा में संधा हुआ,जला हुआ, और फटा हुआ वस्त्र न लेना, तथा दूसरे का वस्त्र भी धारण नहीं करना। एक बार पहना हुआ वस्त्र, जो वस्त्र पहीनकर मलोत्सर्ग, मूत्र तथा स्त्रीसंग किया हो, वह वस्त्र देवपूजा में उपयोग में न लेना। एक ही वस्त्र धारण करके खाना नहीं, तथा पूजा नहीं करना। स्त्रियों को भी कांचली बिना देवपूजा नहीं करना। इस परसे यह सिद्ध हुआ कि, पुरुषों को दो वस्त्र बिना और स्त्रियों को तीन वस्त्र बिना देवपूजादि नहीं करनी चाहिए। धुला हुआ वस्त्र मुख्यपक्ष से तो क्षीरोदक प्रमुख बहुत ऊंचा और वह श्वेतवर्ण रखना। उदायन राजा की रानी प्रभावती आदि का भी श्वेत वस्त्र ही निशीथादिक ग्रंथ में कहा है। दिनकृत्यादिक ग्रंथों में भी कहा है कि'सेअवत्थनिअंसणोत्ति' (अर्थात् श्वेतवस्त्र पहननेवाला आदि) क्षीरोदक आदि वस्त्र रखने की शक्ति न हो तो, दुकुल (रेशमी) आदि श्रेष्ठ वस्त्र ही रखना। पूजाषोड़शक में कहा है कि, 'सितशुभवरेणेति' इसकी टीका में भी कहा है कि श्वेत और शुभ वस्त्र पहन कर पूजा करना। यहां शुभवस्त्र पट्टयुग्मादिक लाल, पीला आदि लिया जाता है। 'एगसाडिअं उत्तरासंगं करेई' (अर्थात् एक साड़ी उत्तरासन करे) इत्यादिक सिद्धान्त के प्रमाणभूत वचन हैं इससे उत्तरीय वस्त्र अखंड ही रखना। दो या अधिक टुकड़े जुड़ा हुआ न रखना। 'दुकुल (रेशमी) वस्त्र पहिनकर भोजनादिक करे तो भी वह अपवित्र नहीं होता,' यह लोकोक्ति इस (पूजा के) विषय में प्रमाणभूत नहीं मानना। परन्तु अन्य वस्त्र की तरह दुकुल वस्त्र भी भोजन, मल, मूत्र तथा अशुचि वस्तु का स्पर्श इत्यादि से बचाकर रखना चाहिए। वापरने पर धोना, धूप देना इत्यादि संस्कार करके पुनः पवित्र करना, तथा पूजा सम्बन्धी वस्त्र थोड़े समय ही वापरना। पसीना, नाक का मल आदि इस वस्त्र से नहीं पोंछना,कारण कि, उससे अपवित्रता होती है। पहने हुए अन्य वस्त्रों से इस वस्त्र को अलग रखना। प्रायः पूजा का वस्त्र दूसरे का नहीं लेना। विशेष कर बालक, वृद्ध,स्त्रियों आदि का तो कदापि नहीं लेना चाहिए। दूसरे का पहना वस न पहनने पर कुमारपाल का दृष्टान्त : ..
सुनते हैं कि, कुमारपाल राजा का उत्तरीयवस्त्र बाहड़ मंत्री के छोटे भाई चाहड़ ने