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श्राद्धविधि प्रकरणम् भिन्न और विद्रुप दीखे, परस्पर दांत घिसाय, और शरीर से मृतशब के समान गंध आवे तो तीन दिन में उसकी मृत्यु होती है। नहाने के बाद जो तुरन्त छाती और दोनों पग सूख जायें, तो छठे दिन मृत्यु होती है इसमें संशय नहीं। स्त्रीसंग किया हो, उलटी हुई हो, स्मशान में चिता का धुंआ लगा हो, बुरा स्वप्न आया हो और हजामत कराई हो तो छाने हुए शुद्ध जल से नहाना चाहिए।
तैलमर्दन, स्नान और भोजनकर तथा आभूषण पहन लेने के बाद, यात्रा तथा संग्राम के अवसर पर, विद्यारंभ में, रात्रि को, संध्या के समय, किसी पर्व के दिन तथा (एकबार हजामत कराने के बाद) नवमें दिन हजामत नहीं कराना चाहिए। पखवाडे में एकबार दाढी, मूछ, सिरके बाल तथा नख निकलवाना, परन्तु श्रेष्ठ मनुष्यों को चाहिए कि अपने हाथ से अपने बाल तथा अपने दांत से अपने नख कभी न निकाले।
- जल स्नान (जल से नहाना) शरीर को पवित्र करना, सुख उत्पन्न करना परम्परा से भावशुद्धि का कारण होता है। श्री हरिभद्रसूरिजी ने दूसरे अष्टक में कहा है कि प्रायः अन्य त्रस आदि जीवों को उपद्रव न हो, उस प्रकार शरीर के त्वचा (चर्म आदि भाग) की क्षणमात्र शुद्धि के निमित्त जो पानी से नहाया जाता है, उसे द्रव्यस्नान कहते हैं। सावध व्यापार करनेवाला गृहस्थ यह द्रव्यस्नान यथाविधि करके देव व साधु की पूजा करे तो उसे यह स्नान भी शुद्धिकारक है। कारण कि, यह द्रव्य स्नान भावशुद्धि का कारण है और द्रव्यस्नान से भावशुद्धि होती है यह बात अनुभव सिद्ध है। अतएव द्रव्यस्नान में कुछ अप्कायविराधनादि दोष हैं, तो भी अन्य समकित शुद्धि आदि अनेक गुण होने से यह गृहस्थ को शुभकारक है। कहा है कि पूजा में जीव हिंसा होती है, और वह निषिद्ध भी है, तो भी जिनेश्वर भगवान की पूजा समकित शुद्धि का कारण है, अतएव शुद्धि (निरवद्य) है। अतः यह सिद्ध हुआ कि, देवपूजादि कार्य करना हो तभी गृहस्थको द्रव्यस्नान की अनुमोदना (सिद्धान्त से अनुमति) कही है। इसलिए द्रव्यस्नान पुण्य के निमित्त है, ऐसा जो कोई कहते हैं, उसे निकाल दिया, ऐसा जाने। तीर्थ में पवित्र होने की बुद्धि से किये हुए स्नान से देह की शुद्धि होती है, परंतु जीव की तो एक अंशमात्र भी शुद्धि नहीं होती। स्कन्दपुराण में काशीखंड के अंदर छठे अध्याय में कहा है कि
मृदो भारसहस्रेण जलकुम्भशतेन च। न शुध्यन्ति दुराचाराः, स्नातास्तीर्थशतैरपि ।।१।। जायन्ते च मियन्ते च जलेष्वेव जलौकसः। न च गच्छन्ति ते स्वर्गमविशुद्धमनोमलाः ।।२।। चित्तं शमादिभिः शुद्धं, वदनं सत्यभाषणैः। ब्रह्मचर्यादिभिः कायः, शुद्धो गङ्गां विनाप्यसौ ।।३।। चित्तं रागादिभिः क्लिष्टमलीकवचनैर्मुखम्। जीवहिंसादिभिः कायो, गङ्गा तस्य पराङ्मुखी ।।४।।