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लक्ष्य-प्रधान काव्यशास्त्रकार वैयाकरणं कवि
विनोद ने श्रीधर स्वामी नाम का निर्देश किया है । सम्भवतः श्री स्वामी श्रीधर स्वामी का एकंदेश है । अतः भट्टि के पिता का नाम श्रीधर स्वामी अधिक युक्त प्रतीत होता है ।
भट्टिकाव्य के अन्तिम श्लोक से विदित होता है कि भट्टिकार गुजरात अन्तर्वर्ती वलभी नगरी का निवासी था ।
काल - भट्टिकार ने अन्तिम श्लोक में लिखा है'काव्यमिदं विहितं मया वलभ्यां श्रीधरसेननरेन्द्र पालितायाम् ।'
वलभी में श्रीधरसेन नामक ४ राजा हुए हैं। उनका काल वि० सं० ५५० से ७०५ तक है । इनमें से किस श्रीधरसेन के काल में भट्टिकाव्य लिखा गया, यह कहना कठिन है । भागवृत्ति के व्याख्या - १० कार सृष्टिधर के वचनानुसर भागवृत्ति की रचना भी वलभी के किसी श्रीधरसेन नामक नरेन्द्र के काल में हुई है । हमारा विचार है कि भागवृत्ति की रचना चतुर्थ श्रीधरसेन के काल (वि० सं० ७०२७०५) में हुई ।' और भट्टिकाव्य की रचना तृतीय श्रीधरसेन के राज्यकाल (सं० ६६०-६७७ ) में हुई । संस्कृत - कविदर्शन के लेखक १५ डा० भोलाशंकर व्यास ने भट्टिकाव्य की रचना द्वितीय श्रीधरसेन के समय में मानी है (पृष्ठ १४३ ) । परन्तु अन्त में समय ६१० ई०६१५ ई० (६६७ वि०–६७२ वि०) लिखा है । द्वितीय श्रीधरसेन का काल लगभग ६२८ वि० - ६४६ वि० (५७१ ई० – ५८६ ई०) तक है । अतः ६१० ई० – ६१५ ई० काल गणना के अनुसार तृतीय श्री - २० घरसेन का ही है । सम्भव है भोलाशंकर व्यास से 'तृतीय श्रीधरसेन' पाठ के स्थान में 'द्वितीय' शब्द अनवधानता से लिखा गया हो ।
भट्टि और भामह - भट्टि और भामह ने अलङ्कारों का जो क्रम अपने अपने ग्रन्थों में दिया है, उसमें बहुत समानतां है । ऐसी कुछ समानता भामह और दण्डी के क्रम में भी है । अतः इस समानतामात्र से दोनों के पौर्वापर्य के विषय में कुछ निश्चय नहीं हो सकता ।
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अलङ्कारक्रम के सादृश्य के अतिरिक्त दोनों ग्रन्थकारों के एक पद्य में भी अद्भुत समानता है । यथा
१. द्र० – प्रथमभाग पृष्ठ ५१५ (च० सं० ) ।