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संस्कत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
इससे अधिक भाष्यकार के काव्य के विषय में हम कुछ नहीं जानते। ' वासुकि अपरनाम पतञ्जलि विरचित साहित्य-शास्त्र का वर्णन
हम प्रथम भाग (पृष्ठ ३८४, च० सं०) में कर चुके हैं। वासुकि के ५ नाम से उद्धत ग्रन्थ वैयाकरण पतञ्जलि का ही है, इस सम्भावना को पतञ्जलि के काव्यकार होने से बल मिलता है।
५- महाभाष्य में उद्धृत कतिपय वचन पाणिनि व्याडि वररुचि और पतञ्जलि इन चारों वैयाकरणों ने काव्यग्रन्थों का ग्रन्थन किया था, इसमें कोई सन्देह नहीं। परन्तु इनके काव्य व्याकरण-शास्त्रोपजीवी काव्यशास्त्र रूप थे, यह कहना अत्यन्त कठिन है। परन्तु महाभाष्य में विभिन्न स्थानों पर उद्धृत कतिपय वचनों से इतना अवश्य स्पष्ट है कि लक्ष्य- प्रधान व्याकरण शास्त्रोपजीवी कतिपय काव्यों की रचना महाभाष्य से पूर्व अवश्य हो गई थी।
महाभाष्य में पतञ्जलि ने कतिपय सूत्रों की व्याख्या में कुछ ऐसे उदाहरण प्रत्युदाहरण उद्धृत किये हैं, जो किसी लक्ष्य-प्रधान काव्य व्याकरणशास्त्रोपजीवी के अंश प्रतीत होते हैं । यथा
१. महाभाष्य १।३।२५ में उपाद्देवपूजासंगतिकरणयोः वार्तिक की व्याख्या में निम्न श्लोक उद्धृत हैं
'बहूनामप्यचित्तानामेको भवति चित्तवान् । पश्य वानरसैन्येऽस्मिन् यदर्कमुपतिष्ठते ॥ मैवं मंस्थाः सचित्तोऽयमेषोऽपि हि यथा वयम् ।
एतदप्यस्य कापेयं यदर्कमुपतिष्ठति ॥' इन श्लोकों में से प्रथम में देवपूजा अर्थ में उपतिष्ठते आत्मनेपद का प्रयोग दर्शाया है । द्वितीय में देवपूजा का अभाव द्योतित करने के लिए उपतिष्ठति परस्मैपद का निर्देश किया है।
. प्रकरण से द्योतित होता है कि पतञ्जलि ने ये दोनों श्लोक किसी .. ऐसे काव्य से उद्धृत किये हैं, जो लक्षणप्रधान था।
२. महाभाष्य १।३।४८ से व्यक्तवाचाम् का प्रत्युदाहरण दिया ३० है