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संस्कृत व्याकरण शास्त्र का इतिहास
यहां भरत मिश्र ने शबर स्वामी की ओर यह संकेत किया हैं । शबर स्वामी ने मीमांसा भाष्य में ( गौ: = ) गकार प्रौकार विजर्सनीय के क्रमिक उच्चारण और पूर्व - पूर्व वर्णजनित संस्कार को अर्थज्ञान में कारण दर्शाया है । और अपने पक्ष की सिद्धि में भगवान् उपवर्ष का ५ उद्धरण दिया । वैयाकरण वर्ण ध्वनि से प्रतीयमान अखण्ड एकरस स्फोट को अर्थज्ञान में कारण मानते हैं ।
२ - गकारौकार विसर्जनीया इति भगवान् उपवर्ष इति ब्र ुवाणोपलपति फलतो न श्रृणोति । उपवर्षो हि भगवान् स्वरानुनासिक्य - कालभेदवद् वृद्धतालव्यांशभेदवच्चाकल्पितभेदाश्रयत्वात् सकलस्य १० द्वादशलक्षणी व्यवहारस्य प्रकृतोपयोगितया व्यावहारिकमेव शब्दं दर्शितवान्, न तात्विकम् । प्रकृतानुपयोगादिति तद्वचनविरोधो नाशंकनीयः । ऋषीणां हि सर्वेषामसम्भवद्भ्रमविप्रलम्भत्वात् परस्परविरोधस्तत्त्वतो नास्तीति विरोधाभासेष्वीदृशः कल्पनीयोऽभिप्रायः । पृष्ठ २८ ।
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अर्थात् -- [ शबर स्वामी ] गकार प्रकार विसर्जनीय [ रूप गौ: शब्द है ] ऐसा कहता हुआ अपलाप करता है, तब से नहीं सुनत ( जानता ) । भगवान् उपवर्ष ने स्वर ग्रानुनासिक्य और काल भेद के समान वृद्ध ( ? ) तालव्य अंश भेद के समान सम्पूर्ण द्वादशाध्यायी मीमांसा के व्यवहार का कल्पित भेद के प्रश्रय होने से प्रकृत ( मीमांसा) शास्त्र के उपयोगी व्यावहारिक शब्द ( ध्वनिरूप ) शब्द काही निदर्शन कराया है, तात्त्विक का नहीं क्योंकि वह प्रकृतशास्त्र के अनुपयोगी था । इसलिये भगवान् उपवर्ष के विरोध की आशंका नहीं करनी चाहिये। सभी ऋषियों में भ्रमविप्रलाप का असम्भव होने से परस्पर तत्त्वतः विरोध नहीं है ।' सर्वत्र विरोधाभास में इसी प्रकार २५ [ अविरुद्ध ] अभिप्राय की कल्पना करनी चाहिये ।
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८- स्फोटसिद्धिन्यायविचार-कर्ता
महामहोपाध्याय गणपति शर्मा ने सन् १९१७ में ट्रिवेण्ड्रम से स्फोट सिद्धिन्यायविचार नामक एक ग्रन्थ प्रकाशित किया था । इसके कर्त्ता का नाम अज्ञात है | अतः इसका काल आदि भी प्रज्ञात ही है ।
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१. स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अपने सत्यार्थ प्रकाश आदि ग्रन्थों में इस मत का विशेषरूप से निरूपण किया है।