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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
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उसके स्वरूप का परिवर्तन सम्भव है, और प्रयत्न करने पर उसके मूल स्वरूप का परिज्ञान भी हो सकता है । इसी धारणा को लेकर हमने भारतीय और पाश्चात्य भाषाशास्त्र के विविध ग्रन्थों के अनुशीलन के साथ साथ भारतीय प्राचीनतम वैदिक वाङ्मय और विविध व्याकरणों का विशेष अध्ययन किया । उससे हम इस परिणाम पर पहुंचे कि भारतीय प्राचीनतम राद्धान्त 'सब शब्द घातुमूलक हैं' सर्वथा सत्य है । इतना ही नहीं, उसको स्वीकार करने में भाषाशास्त्र की दृष्टि से अथवा व्यावहारिक दृष्टि से कोई दोष भी उपस्थापित नहीं किया जा सकता । परन्तु अति पुराकाल में धातु का वह स्वरूप नहीं था. जो १० सम्प्रति स्वीकार किया जाता हैं । अतः धातु के स्वरूप पर विचार करना आवश्यक है ।
धातु का प्राचीन स्वरूप
धातु-लक्षण का स्पष्टीकरण - निस्सन्देह वैयाकरणों द्वारा प्रदर्शित धातु-लक्षण 'दधाति शब्दस्वरूपं यः स धातुः सर्वथा सत्य है, परन्तु १५ इसका वास्तविक तात्पर्य है - 'विभिन्न प्रकार के शब्दरूपों को धारण करनेवाला जो मूल शब्द है, वह धातु कहाता है' अर्थात् जो शब्द आवश्यकतानुसार नाम - विभक्तियों से युक्त होकर नाम बन जाए; प्रख्यात विभक्तों से युक्त होकर क्रिया को द्योतन करने लगे, और उभयविध विभक्तियों से रहित रहकर स्वार्थमात्र का द्योतक होवे, वह २० (तीनों रूपों में परिणत होनेवाला ) मूल शब्द ही 'धातु' पदवाच्य होता
। इस प्रकार के आवश्यकतानुसार विविध रूपों में परिणत होनेवाले शब्दही आदि भाषा संस्कृत के मूल शब्द थे । यतः ये मूलभूत शब्द ही नाम प्रख्यात और अव्यय रूप विविध प्रकार के शब्दों में परिणत होते हैं, अतः 'सब धातुज हैं' यह भारतीय प्राचीन राद्धान्त सर्वथा २५ सत्य है । प्रति प्राचीन काल के भारतीय भाषाविद् उक्त प्रकार के
मूलभूत शब्दों को ही 'धातु' कहते थे ।
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धातु = प्रातिपदिक - प्रतिपुराकाल में पूर्व-निर्दिष्ट धातु शब्दों के लिए प्रातिपदिक शब्द का भी व्यवहार होता था, ऐसा हमारा विचार है । प्रातिपदिक शब्द का स्व-अर्थ है
'पदं पदं प्रति - प्रतिपदम् । प्रतिपदेषु भवं प्रातिपदिकम् ।'