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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
धवलाकार ने कई जगह ऐसे प्रसंग भी उठाये हैं जहां सूत्रों पर इन आचार्यों का कोई मत उपलब्ध नहीं था । इनका निर्णय उन्होंने अपने गुरु के उपदेश के बल पर ' व परम्परागत उपदेश द्वारा तथा सूत्रों से अविरुद्ध अन्य आचार्यों के वचनों द्वारा किया है।
धवला पत्र १०३६ पर तथा जयधवला के मंगलाचरण में कहा गया है कि गुणधराचार्य विरचित कषायप्राभृत आचार्य परम्परा से आर्यमंक्षु और नागहस्ति आचार्यों को प्राप्त हुआ और उनसे सीखकर यतिवृषभ ने उन पर वृत्तिसूत्र रचे । वीरसेन और जिनसेन के सन्मुख, जान पड़ता है, उन दोनों आचार्यों के अलग-अलग व्याख्यान प्रस्तुत थे क्योंकि उन्होंने अनेक जगह उन दोनों के मतभेदों का उल्लेख किया है तथा उन्हें महावाचक के अतिरिक्त 'क्षमाश्रमण' भी कहा है । यतिवृपभकृत चूर्णिसूत्रों की पुस्तक भी उनके सामने थी और उसके सूत्र-संख्या-क्रम का भी वीरसेन ने बड़ा ध्यान रक्खा है । उत्तर और दक्षिण प्रतिपत्ति
सूत्रों और उनके व्याख्यानों में विरोध के अतिरिक्त एक और विरोध का उल्लेख मिलता है जिसे धवलाकार ने उत्तर-प्रतिपत्ति और दक्षिण-प्रतिपत्ति कहा है। ये दो भिन्न मान्यताएं थी जिनमें से टीकाकार स्वयं दक्षिण-प्रतिपत्ति को स्वीकार करते थे, क्योंकि, वह ऋजु अर्थात सरल, सुस्पष्ट और आचार्य - परम्परागत है, तथा उत्तर-प्रतिपत्ति अनृजु है
और आचार्य-परम्परागत नहीं है। धवला में इस प्रकार के तीन मतभेद हमारे दृष्टिगोचर हुए हैं। प्रथम द्रव्यप्रमाणानुयोगद्वार में उपशमश्रेणी की संख्या ३०४ बताकर कहा है -
१. कधमेदं णव्वदे ? गुरुवदेसादो । धवला. अ. ३१२ २. सुत्ताभावे सत्त सेव खंडाणि कीरंति त्ति कधं णव्वदे ? ण, आइरिय-परंपरागदुवदेसादो । धवला.
अ. ५९२. ३. कुदो णव्वदे ? अविरुद्धाइरियवयणादो सुत्त-समाणादो । धवला. अ. १२५७ सुत्तेण विणा ........
कुदो णव्वदे ? सुत्तविरुद्धाइरियवयणादो । धवला. अ. १३३७. ४. कम्मट्ठिदि त्ति अणियोगद्दारे हि भण्णमाणे वे उवदेसा होति । जहण्णुक्कस्सहिदीणं पमाणपरुवणा कम्मट्टिपरूवणे त्ति णागहत्थि-खमासमणा भणंति । अज्जमखुखमासमणा पुण कम्मट्टिदिपरूवणे त्ति भणंति । एवं दोहि उवदेसेहि कम्मट्टिदिपरूवणा कायव्वा । (धवला. अ. १४४०.) एत्थ दुबे उवएसा ..... महावाचयाणमज्जमखुखवणा-णमुवदेसेण लोगपूरिदे आउगसमाण णामा-गोदवेदणीयाणं ट्ठिदिसंत-कम्मं ठवेदि। महावाचयाणं णागहत्थि-खवणाण-सुवएसेण लोगे पूरिदेणामागोद-वेदणीयाण ट्ठिदिसंतकम्मं अंतोमुहुत्तपमाणं होदि । जयध. अ. १२३९. ५. जइवसह-चुण्णिसुत्तम्भि णव-अंकुवलंभादो। ......... जइवसहठविद-वारहंकादो । जयध. अ. २४