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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
चुण्णिसुत्तम्मि बप्पदेवाइरियलिहिदुच्चारणाए अंतोमुहुत्तमिदि भणिदो । अम्हेहि लिहिदुच्चरणाए पुण जह. एगसमओ, उक्क. संखेज्जा समया त्ति परूविदो (जयध. १८५)
___ इन अवतरणों से बम्पदेव और उनकी टीका 'व्याख्याप्रज्ञप्ति' का अस्तित्व सिद्ध होता है । धवलाकार वीरसेनाचार्य के परिचय में हम कह ही आये हैं कि इन्द्रनन्दि के अनुसार उन्होंने व्याख्याप्रज्ञप्ति को पाकर ही अपनी टीका लिखना प्रारम्भ किया था।
उक्त पांच टीकाएं षट्खंडागम के पुस्तकारुढ होने के काल (विक्रम की २ री शताब्दि) से धवला के रचना काल (विक्रम की ९ वीं शताब्दि) तक रची गई जिसके अनुसार स्थूल मानसे कुन्दकुन्द दूसरी शताब्दि में, शामकुंड तीसरी में, तुम्बुलूर चौथी में, समन्तभद्र पांचवी में और बप्पदेव छठवीं और आठवीं शताब्दि के बीच अनुमान किये जा सकते हैं।
प्रश्न हो सकता है कि ये सब टीकाएं कहां गई और उनका पठन-पाठन रूप से प्रचार क्यों विच्छिन्न हो गया ? हम धवलाकार के परिचय में ऊपर कह आये हैं कि उन्होंने, उनके शिष्य जिनसेन के शब्दों में, चिरकालीन पुस्तकों का गौरव-बढ़ाया और इस कार्य में वे अपने से पूर्व के समस्त पुस्तक-शिष्यों से बढ़ गये । जान पड़ता है कि इसी टीका के प्रभाव में उक्त सब प्राचीन टीकाओं का प्रचार रूक गया । वीरसेनाचार्य ने अपनी टीका के विस्तार व विषय के पूर्ण परिचय तथा पूर्व मान्यताओं व मतभेदों के संग्रह, आलोचन व मंथन द्वारा उन पूर्ववती टीकाओं को पाठकों की दृष्टि से ओझल कर दिया। किन्तु स्वयं यह वीरसेनीया टीका भी उसी प्रकार के अन्धकार में पड़ने से अपने को नहीं बचा सकी । नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने इसका पूरा सार लेकर संक्षेप में सरल और सुस्पष्ट रूप से गोम्मटसार की रचना कर दी, जिससे इस टीका का भी पठन-पाठन प्रचार रुक गया । यह बात इसी से सिद्ध है कि गत सात-आठ शताब्दियों में इसका कोई साहित्यिक उपयोग हुआ नहीं जान पड़ता और इसकी एकमात्र प्रति पूजा की वस्तु बनकर तालों में बन्द पड़ी रही। किन्तु यह असंभव नहीं है कि पूर्व की टीकाओं की प्रतियां अभी भी दक्षिण के किसी शास्त्रभंडार में पड़ी हुई प्रकाश की बाट जोह रही हों । दक्षिण में पुस्तकें ताडपत्रों पर लिखी जाती थीं और ताड़पत्र जल्दी क्षीण नहीं होते । साहित्य प्रेमियों को दक्षिणप्रान्त के भण्डारों की इस दृष्टि से भी खोजबीन करते रहना चाहिए।