________________
"
सामा।
षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका परिमाण चौरासी हजार | इस महती व्याख्या की भाषा कनाड़ी थी। इसके अतिरिक्त उन्होंने छठवें खंड पर सात हजार प्रमाण 'पश्चिका' लिखी । इस प्रकार इनकी कुल रचना का प्रमाण ९१ हजार श्लोक हो जाता है । इन रचनाओं का भी कोई उल्लेख धवला व जयधवला में हमारे दृष्टिगोचर नहीं हुआ । किन्तु महाधवलका जो परिचय 'धवलादि सिद्धान्त ग्रंथों के प्रशस्ति संग्रह' में दिया गया है उसमें पंचिकारूप विवरण का उल्लेख पाया जाता है ।। यथा
वोच्छामि संतकम्मे पंचियरूवेण विवरणं सुमहत्थं ॥ ...... पुणो तेहितो सेसहारसणि- योगद्दााणि संतकम्मे सव्वाणि परूविदाणि । तो वि तस्सइगंभीरत्तादो अत्थविसमपदाणमत्थे थोरुद्धयण पंचिय सरूवेण भणिस्सामो ।
जान पड़ता है यही तुम्बुलूराचार्यकृत षष्टम खंडकी वह पंचिका है जिसका इन्द्रनन्दिने उल्लेख किया है। यदि यह ठीक हो तो कहना पड़ेबा कि चूडामणि व्याख्या की भाषा कनाड़ी थी, किन्तु इस पंचिका को उन्होंने प्राकृत में रचा था।
भट्टाकलंक देव ने अपने कर्णाटक शब्दानुशासन में कनाड़ी भाषा में रचित 'चूड़ामणि' नामक तत्वार्थमहाशास्त्र व्याख्यान का उल्लेख किया है । यद्यपि वहां इसका प्रमाण ९६ हजार बतलाया है जो इन्द्रनन्दि के कथन से अधिक है, तथापि उसका तात्पर्य इसी तुम्बुलूराचार्यकृत 'चूड़ामणि' से है ऐसा जान पड़ता है २ । इनके रचना-काल के विषय में इन्द्रनन्दि ने इतना ही कहा है कि शामकुंड से कितने ही काल पश्चात् तुम्बुलूाचार्य हुए। ४. समन्तभद्रस्वामी कृत टीका
तुम्बुलूराचार्य के पश्चात कालान्तर में समन्तभद्र स्वामी हुए जिन्हें इन्दनन्दि ने 'तार्किकार्क' कहा है। उन्होंने दोनों सिद्धान्तों का अध्ययन करके षट्खण्डागम के पांच खंडों
१. वरिवार्णाविलास जैनसिद्धान्तभवन का प्रथम वार्षिक रिपोर्ट, १९३५. २. न चैषा (कर्णाटकी) भाषा शास्त्रानुपयोगिनी, तत्त्वार्थमहाशास्त्रव्याख्यानस्य ग्रंथसंदर्भरूपस्य
चूडामण्यभिधानस्य महाशास्त्रस्यान्येषां च शब्दागम युत्तयागम-परमागम-विषयाणां तथा काव्यनाटक काशास्त्र-विषयाणां च बहूनां ग्रन्थानाप्तपि भाषाकृतानामुपलब्धमानत्वात् । (समन्तभद्र
पृ. २१८) ३. तस्मादारात्पुनरपि काले गतवति कियत्यपि च । अथ तुम्बुलूरनामाचार्योऽभूत्तुम्बुलूरसद्ग्रामे । षष्ठेन
विना खण्डेन सोऽपि सिद्धान्तयोरुभयो: ॥ १६५ ॥ चतुरधिकाशीतिसहस्रग्रन्थरचनया युक्ताम् । कर्णाटभाषायाऽकृत महतीं चूड़ामणि व्याख्याम् ॥ १६६॥ सप्तसहस्रग्रन्थां षष्ठस्य च पंचिकां पुनरकाषीत् । इन्द्र. श्रुतावतार.