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________________ x षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका उक्त उल्लेखों में से प्राय: सभी का सम्बन्ध षट्खण्डगम के प्रथम तीन खण्डों के विषय से ही है जिससे इन्द्रनन्दि के इस कथन की पुष्टि होती है कि वह ग्रंथ प्रथम तीन खण्डों पर ही लिखा गया था । उक्त उल्लेखों पर से 'परिकर्म के' कर्ता के नामादिक का कुछ पता नहीं लगता । किन्तु ऐसी भी कोई बात उनमें नहीं है कि जिससे वह ग्रंथ कुन्दकुन्दकृत न कहा जा सके । धवलाकार ने कुन्दकुन्द के अन्य सुविख्यात ग्रंथों का भी कर्ता का नाम दिये बिना ही उल्लेख किया है । यथा, वुत्तं च पंचत्थिपाहुडे (धवला, अ.पृ.२८९) इन्दनन्दिने जो इस टीका को सर्व प्रथम बतलाया है और धवलाकार ने उसे सर्व आचार्य-सम्मत कहा है, तथा उसक, स्थान - स्थान पर उल्लेख किया है, इससे इस ग्रंथ के कुन्दकुन्दाचार्य कृत मानने में कोई आपत्ति नहीं दिखती । यद्यपि इन्द्रनन्दिने यह नहीं कहा है कि यह ग्रंथ किस भाषा में लिखा गया था, किन्तु उसके जो 'अवतरण' धवला में आये हैं वे सब प्राकृत में ही है, जिससे जान पड़ता है कि वह टीका प्राकृत में ही लिखी गई होगी | कुन्दकुन्द के अन्य सब ग्रंथ भी प्राकृत में ही हैं। धवला में परिकर्म का एक उल्लेख इस प्रकार से आया है - " 'अपदेसं णेव इंदिए गेझं' इदि परमाणूणं णिरवयवत्तं परियम्मे वुत्तमिदि" (ध. १११०) इसका कुन्दकुन्द के नियमसार की इस गाथा से मिलान कीजिये - अत्तादि अत्तमझं अत्तंतं णेव इंदिए गेझं। अविभागी जं दव्वं परमाणू तं विआणाहि ॥ २६ ॥ इन दोनों अवतरणों के मिलान से स्पष्ट है कि धवला में आया हुआ उल्लेख नियमसार से भिन्न है, फिर भी दोनों की रचना में एक ही हाथ सुस्पष्ट रूप से दिखाई देता है । इन सब प्रमाणों से कुन्दकुन्दकृत परिकर्म के अस्तित्व में बहुत कम सन्देह रह जाता है। धवलाकार ने एक स्थान पर 'परिकर्म' का सूत्र कह कर उल्लेख किया है। यथा'रूवाहियाणि त्ति परियम्मसुत्तेण सह विरुज्झइ' (धवला अ.पृ. १४३) । बहुधा वृत्तिरूप जो व्याख्या होती है उसे सूत्र भी कहते हैं । जयधवला में यतिवृषभाचार्य को 'कषायप्राभृत' का 'वृत्तिसूत्रकर्ता' कहा है । यथा - 'सो वित्तिसुत्तकत्ता जइवसहो में वरं देऊ' (जयध. मंगलाचरण गा. ८) इससे जान पड़ता है कि परिकर्म नामक व्याख्यान वृत्तिरूप था । इन्द्रनन्दिने परिकर्म को ग्रंथ कहा है। वैजयन्ती कोष के अनुसार ग्रंथ वृत्ति का एक पर्याय -वाचक नाम
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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