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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
धवला नाम की सार्थकता -
वीरसेन स्वामी ने अपनी टीका का नाम धवला क्यों रक्खा यह कहीं बतलाया गया दृष्टिगोचर नहीं हुआ | धवला का शब्दार्थ शुक्ल के अतिरिक्त शुद्ध, विशद, स्पष्ट भी होता है। संभव है अपनी टीका के इसी प्रसाद गुण को व्यक्त करने के लिये उन्होंने यह नाम चुना हो । ऊपर दी हुई प्रशस्ति से ज्ञात है कि यह टीका कार्तिक मास के धवल पक्ष की त्रयोदशी को समाप्त हुई थी । अतएव संभव है इसी निमित्त से रचयिता को यह नाम उपयुक्त जान पड़ा हो। ऊपर बतला चुके हैं कि यह टीका वद्दिग उपनामधारी अमोघवर्ष (प्रथम) के राज्य प्रारंभ में समाप्त हुई थी । अमोधवर्ष की अनेक उपाधियों में एक उपाधि 'अतिशयधवल' भी मिलती है । उनकी इस उपाधि की सार्थकता या तो उनके शरीर के अत्यन्त गौरवर्ण में हो या उनकी अत्यन्त शुद्ध सात्विक प्रकृति में । अमोघवर्ष बड़े धार्मिक बुद्धि वाले थे । उन्होंने अपने वृद्धत्वकाल में राज्यपाट छोड़कर वैराग्य धारण किया था और 'प्रश्नोत्तररत्नमालिका' नामक सुन्दर काव्य लिखा था । बाल्यकाल से ही उनकी यह धार्मिक बुद्धि प्रकट हुई होगी । अत: संभव है उनकी यह 'अतिशय धवल' उपाधि भी धवला के नामकरण में एक निमित्तकारण हुआ हो ।
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धवला से पूर्व के टीकाकार
ऊपर कह आये हैं कि जयधवला की प्रशस्ति के अनुसार वीरसेनाचार्य ने अपनी टीकाद्वारा सिद्धान्त ग्रन्थों की बहुत पुष्टि की, जिससे वे अपने से पूर्व के समस्त पुस्तक शिष्यकों से बढ़ गये ' । इससे प्रश्न उत्पन्न होता है कि क्या वीरसेन से भी पूर्व इस सिद्धान्त ग्रन्थ की अन्य टीकाएं लिखी गई थीं ?' इन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतार में दोनों सिद्धान्त ग्रन्थों पर लिखी गई अनेक टीकाओं का उल्लेख किया है जिसके आधार से षट्खण्डागमकी धवला पूर्व रची गई टीकाओं का यहां परिचय दिया जाता है ।
१. परिकर्म और उसके रचियता कुन्दकुन्द -
कर्मप्राभृत (षट्खण्डागम) और कषायप्राभृत इन दोनों सिद्धान्तों का ज्ञान गुरु
१. रेऊ: भारत के प्राचीन राजवंश, ३, पृ. ४०
२. पुस्तकानां चिरवानां गुरुत्वमिह कुर्वता । येनातिशयिताः पूर्वे सर्वे पुस्तकशिष्यकाः ॥ २४ ॥
(जयधवलाप्रशस्ति)