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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका जोड़ा गया है । । यह भ्रमवश हो और चाहे किसी मान्यतानुसार । यह भी बात नहीं है कि अकेला ही इस प्रकार का उदाहरण हो । त्रिलोकसार की गाथा नं. ८५० की टीका करते हुए टीकाकार श्री माधव चन्द्र विद्य लिखते हैं - 'श्री वीरनाथनिवृत्ते: सकाशात् पंचोत्तरषट्शतवर्षाणि (६०५) पंचमासयुतानि गत्वा पश्चात् विक्रमांकशकराजो जायते । तत उपरि चतुर्णवत्युत्तरत्रिशत (३९४) वर्षाणि सप्तमासाधिकानि गत्वा पश्चात कल्की जायते'। यहां विक्रमांक शकराज का उल्लेख है और उसका तात्पर्य स्पष्टत: शकसंवत् के संस्थापक से है। उक्त अवतरण पर डा. पाठक ने टिप्पणी की है कि यह उल्लेख त्रुटि पूर्ण है। उन्होंने ऐसा समझकर यह कहा ज्ञात होता है कि उस शब्द का तात्पर्य विक्रम संवत् से ही हो सकता है। किन्तु ऐसा नहीं है । शक संवत् की सूचना में ही लेखक ने विक्रम का नाम जोड़ा है और उसे शकराज की उपाधि कहा है जो सर्वथा संभव है । शक और विक्रम के संबन्ध का कालगणना के विषय में जैन लेखकों में कुछ भ्रम रहा है यह तो अवश्य है । त्रिलोक प्रज्ञप्ति में जो शक की उत्पत्ति वीरनिर्वाण से ४६१ वर्ष पश्चात् या विकल्प से ६०५ वर्ष पश्चात् बतलाई गई है । उसमें यही भ्रम या मान्यता कार्यकारी है, क्योंकि, वीर नि. से ४६१ वां वर्ष विक्रम के राज्य में पड़ता हे और ६०५ वर्ष से शककाल प्रारम्भ होता है । ऐसी अवस्था में प्रस्तुत गाथा में यदि 'विक्कमरायम्हि' से शकसंवत् की सूचना ही हो तो हम कह सकते हैं कि उस गाथा के शुद्ध पाठ में धवला के समाप्त होने का समय शंक संवत् ७३८ निर्दिष्ट रहा है। इस निर्णय में एक कठिनाई उपस्थित होती है । शक संवत् ७३८ में लिखे गये नवसारी के ताम्रपट में जगतुंग के उत्तराधिकारी अमोघवर्ष के राज्य का उल्लेख है। यही नहीं, किन्तु शक संवत् ७८८ के सिरूर से मिले हुए ताम्रपट में अमोघवर्ष के राज्य के ५२ वें वर्ष का उल्लेख है, जिससे ज्ञात होता है कि अमोघवर्ष का राज्य ७३७ से प्रारम्भ हो गया था। तब फिर शक ७३८ में जगतुंग का उल्लेख किस प्रकार किया जा सकता है ? इस प्रश्न पर विचार करते हुए हमारी दृष्टि गाथा नं. ७ में 'जगतुंदेवरज्जे' के अनन्तर आये हुए 'रियम्हि' 1. Inscriptions at Sravana Belgola, Intro, P. 84 and न्याय कु. चं. भूमिका पृ. १०३ २. वीरजिणं सिद्धिगदे चउ-सद-इसट्टि वास-परिमाणे । कालम्भि अदिकंते उप्पणो एत्थ सगराओ।८६॥ णिव्वाणे वीरजिणे छव्वास-सदेस पंच-वरिसेस । पण-मासेसु गदेसु संजादो सगणिओ अहवा ॥॥ तिलोयपण्णत्ति
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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