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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका आचार्य - परम्परा के नाम भेद - ३७ ठीक यही परम्परा धवला में आगे पुनः वेदनाखंड के आदि में मिलती है । इन दोनों स्थानों तथा बेल्गोल के शिलालेख नं. १ में नं. २ के आचार्य का नाम लोहार्यही पाया जाता है, किन्तु हरिवंशपुराण, श्रुतावतार व ब्रह्म हेमकृत श्रुतस्कंध व शिलालेख नं. १०५ (२५४) में उस स्थान पर सुधर्म का नाम मिलता है। यही नहीं, स्वयं धवलाकार द्वारा ही रची हुई 'जयधवला' में भी उस स्थान पर लोहार्य नहीं सुधर्म का नाम है। इस उलझन को सुलझाने वाला उल्लेख 'जंबूदीवपण्णत्ति' में पाया जाता है। वहां यह स्पष्ट कहा गया है कि लोहार्य काही दूसरा नाम सुधर्म था । यथा - 'तेण वि लोहज्जस्स य लोहज्जेण य सुधम्मणामेण । गणधर - सुधम्मणा खलु जंबूणामस्स णिद्दिद्वं ॥ १० ॥ (जै सा. सं. १ पृ. १४९ ) नं. ४ पर विष्णु के स्थान में भी नामभेद पाया जाता है। जंबूदीवपण्णत्ति, आदिपुराण व श्रुतस्कंध में उस स्थान पर 'नन्दी' या नन्दीमुनि नाम मिलता है । यह भी लोहार्य और सुधर्म के समान एक ही आचार्य के दो नाम प्रतीत होते हैं । इस भेद का कारण यह प्रतीत होता है कि इन आचार्य का पूरा नाम विष्णुनन्दि होगा और वे ही एक स्थान पर संक्षेप से विष्णु और दूसरे स्थान पर नन्दि नाम से निर्दिष्ट किये गये हैं । यही बात आगे नं. १८ के गंगदेव विषय में पाई जाती है । नं. ५ और ६ के आचार्यों का शिलालेख नं. १०५ में विपरीत क्रम से उल्लेख किया गया है, अर्थात वहां अपराजिता का नाम पहिले और नंदिमित्र का पश्चात् किया गया है । संभवतः यह छंद - निर्वाह मात्र के लिये है, कोई भिम्न मान्यता का द्योतक नहीं । आगे के अनेक आचार्यों के नाम भी शिलालेख नं. १०५ में भिन्न क्रम से दिये गये हैं जिसका कारण भी छंदरचना प्रतीत होता है और इसी कारण संभवत: धर्मसेन का नाम यहां भिन्न क्रम से सुधर्म दिया गया है । उसी प्रकार नं. ११ और १२ का उल्लेख श्रुतस्कंध में विपरीत है, अर्थात् जयका नाम पहले और क्षत्रिय का नाम पश्चात् दिया गया है । क्षत्रिय के स्थान में शिलालेख नं. १ में कृत्तिकार्य नाम है जो अनुमानत: प्राकृत पाठ क्खत्तियारिय' का भ्रान्त संस्कृत रूप प्रतीत होता है । नंदिसंघ की प्राकृत पट्टावली में नं. १७ के बुद्धिल के स्थान पर बुद्धिलिंग व नं. १८ गंगदेव के स्थान पर केवल 'देव' नाम है ।
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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