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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका ४७० विशेष इतना है कि क्षीणमोह के काल में एक समय अधिक आवली मात्र काल शेष रह जाने के पहिले पहिले ही होता है, उसके पश्चात् नहीं । पाँचवे (नाम व गोत्र प्रकृतिरूप) स्थान के स्वामी सयोगकेवली है। तत्पश्चात् प्रकृतिस्थान उदीरणा की ही प्ररूपणा में एक जीव की अपेक्षा काल और अन्तर, नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय, नाना जीवों की अपेक्षा काल व अन्तर तथा अल्पबहुत्व का विचार किया गया है । भुजाकार उदीरणा की प्ररूपणा में अर्थपद का कथन करते हुए बतलाया है कि अनन्तर अधिक्रान्त समय में थोड़ी प्रकृतियों की उदीरणा करके इस समय उनसे अधिक प्रकृतियों की उदीरणा करना इसे भुजाकार (भुयस्कार) उदीरणा कहते हैं। अनन्तर अतिकान्त समय में अधिक प्रकृतियों की उदीरणा करके इस समय उनसे कम प्रकृतियों की उदीरणा करने का नाम अल्पतरउदीरणा है । अनन्तर अतिक्रान्त समय में जितनी प्रकृतियों की उदीरणा कर रहा था इस समय भी उतनी ही प्रकृतियों की उदीरणा करना उनसे हीन या अधिक की उदीरणा न करना - इसे अवस्थितउदीरणा कहा जाता है । अनन्तर अतिक्रान्त समय में अनुदीरक होकर इस समय में की जानेवाली उदीरणा नाम अवक्तव्य उदीरणा है। स्वामित्वप्ररूपणा में यह बतलाया गया है कि भुजाकारउदीरणा, अल्पतरउदीरणा और अवस्थित उदीरणा का स्वामी कोई भी मिथ्यादृष्टि अथवा सम्यग्दृष्टि जीव हो सकता है । अवक्तव्यउदीरणा का स्वामी सम्भव नहीं है । एक जीव की अपेक्षा काल की प्ररूपणा में भुजाकारउदीरणा का काल जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से दो समय मात्र बतलाया है जो इस प्रकार से सम्भव है - कोई उपशान्तकषाय जीव बहाँ से च्युत होकर सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानवर्ती हुआ । वहाँ पर पाँच से छह प्रकृतियों की उदीरणा करने के कारण भुजाकारउदीरक हो गया । इस प्रकार भुजाकार उदीरणा का जघन्य काल एक समय प्राप्त हुआ। पुन: वही द्वितीय समय में मृत्यु को प्राप्त होकर देवों में उत्पन्न हुआ। वहाँ उत्पन्न होने के प्रथम समय में वह छह प्रकृतियों से आठ का उदीरक होकर भुजाकार उदीरक ही रहा । यहाँ भुजाकार उदीरणा का द्वितीय समय प्राप्त हुआ । इस प्रकार भुजाकार उदीरणा का उत्कृष्ट काल दो समय मात्र प्राप्त होता है। अल्पतर उदीरणा का भी काल जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से दो समय मात्र है । वह इस प्रकार है - प्रमत्तसंयत के अन्तिम समय में आयु कर्म के उदयावली में
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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