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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका ४६४ होता है उनसे वैक्रियिकऔर आहारक शरीर का निर्माण नहीं होता । जिन आहरवर्गणाओंसे वैक्रियिकशरीर का निर्माण होता है उनसे औदारिक और आहारकशरीर का निर्माण नहीं होता । तथा जिन आहारवर्गणाओं से आहारकशरीर का निर्माण होता है, उनसे औदारिक और वैक्रियिक शरीर का निर्माण नहीं होता । वस्तुत: औदारिक आदि तीन शरीरों का निर्माण करने वाली आहारवर्गणाएँ अलग अलग हैं पर उनके मध्य में व्यवधान न होने से उनकी एकवर्गणा मानी गई है । इसी प्रकार भाषा आदि वर्गणाओं में चार भाषाओं, चार मन और आठ कर्मों की वर्गणाएँ भी अलग अलग जाननी चाहिए । इस प्रकारण के जो सूत्र हैं उन्हीं के आधार से उन्होंने यह अर्थ फलित किया है । प्रदेशार्थता में सब शरीरों की प्रदेशार्थता अनन्तानन्त प्रदेशवाली है यह बतलाकर आदि के तीन शरीरों में पाँच वर्ण, पाँच रस, दो गन्ध और आठ स्पर्श बतलाये हैं। तथा अन्त के दो शरीरों में पाँच वर्ण पाँच रस, दो गन्ध और चार स्पर्श बतलाये हैं। आहारकशरीर में धवल वर्ण होता है ऐसी अवस्था में यहां पांच वर्ण कैसे बतलाये हैं इसका समाधान करते हुए वीरसेन स्वामी लिखते हैं कि आहारकशरीर के विस्रसोपचय की अपेक्षा उसका धवल वर्ण कहा जाता है, वैसे उसमें पाँचों वर्ण होते हैं । इसी प्रकार इस शरीर में अशुभ रस, अशुभ गन्धऔर अशुभ स्पर्श अव्यक्तभाव से रहते हैं, या अशुभ रस, अशुभ गन्ध और अशुभ स्पर्श वाली वर्गणाएँ आहारकशरीर रूप से परिणमन करते समय शुभ रूप हो जाती हैं, इसलिए इसमें पाँच वर्णो के समान पाँच रस, दोगन्ध और आठ स्पर्श भी बतलाये हैं। तथा तैजस और कार्मण स्कन्ध में प्रतिपक्षरूप स्पर्श नहीं होते, इसलिए चार स्पर्श बतलाये हैं । अल्पबहुत्व दो प्रकार का है - प्रदेशअल्पबहत्व और अवगाहना अल्पबहुत्व । प्रदेशअल्पबहुत्व में बतलाया है कि औदारिकशरीर द्रव्यवर्गणा के प्रदेश सबसे स्तोक हैं। उनसे वैक्रियिकशरीर द्रव्यवर्गणा के प्रदेश अनन्तगुणे हैं। उनसे भाषा, मन और कार्मणा शरीर द्रव्यवर्गणा की अवगाहना सबसे स्तोक है । उससे मनोद्रव्यवर्गणा की अवगाहना असंख्यातगुणी है । उससे भाषाद्रव्यवर्गणा की अवगाहना असंख्यातगुणी है । उससे आहारकशरीर द्रव्यवर्गणा की अवगाहना असंख्यातगुणी है। उससे वैक्रियिकशरीर द्रव्यवर्गणा की अवगाहना असंख्यातगुणी है और उससे औदारिकशरीर द्रव्यवर्गणा की अवगाहना असंख्यातगुणी है । बन्धविधान बन्ध के चार भेद हैं - प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध । इन चारों का विस्तार से निरूपण भगवान् भूतबलि भट्टारक ने महाबन्ध में किया है । उनका यहां पर प्ररूपण करने पर बन्धविधान समाप्त होता है।
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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