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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका કદ્દર बाद में पर्याप्त और अपर्याप्त बादर निगोद जीवों के एक साथ रहने में कोई बाधा नहीं आती । किन्तु सूक्ष्म निगोद वर्गणा में सभी सूक्ष्मनिगोद जीव मिश्ररूप ही होते हैं, क्योंकि इनकी उत्पत्ति के प्रदेश और काल का कोई नियम नहीं है । ___ इस प्रकार 'जत्थेय मरदि जीवों' इत्यादि गाथा के उत्तरार्ध का कथन करके उसके पूर्वार्ध का विचार करते हुए बतलाया गया है कि जो बादर निगोद जीव उत्पत्ति के क्रम से उत्पन्न होते हैं और परस्पर बन्धन के क्रम से सम्बन्ध को प्राप्त होते हैं उनका मरण क्रम से ही निर्गम होता है । इनका उत्पत्ति के क्रम से निर्गमन नहीं होता है, किन्तु मरण के क्रम से निर्गमन होता है यह उक्त कथन का तात्पर्य है । मरण का क्रम क्या है इस प्रश्न का समाधान करते हुए बतलाया है कि वह दो प्रकार का है - यवमध्यक्रम और अयव मध्यक्रम । इनमें से पहले अयवयमध्यक्रम का निर्देश करते हैं - सर्वोत्कृष्ट गुणश्रेणि के द्वारा मरनेवाले और सबसे दीर्घकाल द्वारा निर्लेप्यमान होने वाले जीवों के अन्तिम समय में मृत होने से बचे हुए निगोदों का प्रमाण आवलि के असंख्यातवें भागप्रमाण होता है । यहाँ निगोद शब्द पुलवियाची है । अभिप्राय यह है किक्षीणकषाय के अन्तिम समय में पूर्व में मृत हुए जीवों से बचे हुए जीवों की पुलवियाँ आवलि के असंख्यातवें भाग प्रमाण होती है । क्षीणकषाय के अन्तिम समय में निगोद जीवों के शरीरी असंख्यात लोकप्रमाण होते हैं और एक-एक शरीर में पूर्व में मरने से बचे हुए अनन्त निगोद जीव होते हैं। तथा उनकी आधारभूत पुलवियाँ उक्तप्रमाण होती हैं । यहाँ क्षीणकषाय के काल के भीतर या थूवर आदि में मरने वाले जीवों की प्ररूपणा चार प्रकार की है - प्ररूपणा, प्रमाण, श्रेणि अल्पबहत्व । प्ररूपणा में बतलाया है कि क्षीणकषाय के प्रत्येक समय में जीव मरते हैं । प्रमाण में बतलाया है कि क्षीणकषाय के प्रत्येक समय में अनन्त जीव मरते हैं । श्रेणि दो प्रकार की है - अनन्तरोपनिधा और परम्परोपनिधा । अनन्तरोपनिधा में बतलाया है कि क्षीणकषाय के प्रथम समय में मरने वाले जीव स्तोक हैं। दसरे समय में मरने वाले जीव विशेष अधिक हैं। इस प्रकार आवलिपृथक्त्व काल तक प्रत्येक समय में विशेषअधिक विशेष अधिक जीव मरते हैं। उसके बाद क्षीणकषाय के संख्यातवें भागप्रमाण काल में से आवलि के असंख्यातवें भागप्रमाण काल जाने पर मरने वाले जीव दूने हो जाते हैं। इस प्रकार इतना इतना अवस्थित अध्वान जाकर मरने वाले जीवों की संख्या दूनी दूनी होती जाती है और वह क्रम असंख्यातवें भाग अधिक मरने वाले जीवों के अन्तिम समय के प्राप्त होने तक जानना चाहिए। उसके बाद अन्तिम समय तक प्रत्येक समय में असंख्यातगुणे असंख्यातगुणे जीव मरते हैं । आगे क्षीणकषाय के काल में बादर निगोद जीव के जघन्य आयप्रमाण काल के शेष रहने पर बादर निगोद जीव नहीं उत्पन्न होते हैं । इस अर्थ को स्पष्ट करने के लिए
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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