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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका ४६१ के बाद जीव से अभेदरूप पाँच शरीरपुद्गलों के विस्रसोपचय का माहात्म्य बतलाने के लिए अल्पबहुत्व का निर्देश किया गया है । तथा मध्य में प्रसंग से जीवप्रमाणानुगम, प्रदेशप्रमाणानुगम और इनके अल्पबहुत्व का भी विचार किया गया है । इस प्रकार इतना विचार करने पर बाह्यवर्गणा का विचार समाप्त होता है । चूलिका पहले जो अर्थ कह आये हैं उसका विशेष रूप से कथन करना चूलिका है। पहले ' जत्थेय मरदि जीवो' इत्यादि गाथा कह आये हैं। यहां पर सर्वप्रथम इसी गाथा के उत्तरार्ध का विचार किया गया है । ऐसा करते हुए बतलाया है कि प्रथम समय में एकनिगोद जीव के उत्पन्न होने पर उसके साथ अनन्तनिगोद जीव उत्पन्न होते हैं । तथा जिस समय ये जीव उत्पन्न होते हैं उसी समय उनका शरीर और पुलवि भी उत्पन्न होती हैं । तथा कहीं कहीं पुलवि की उत्पत्ति पहले भी हो जाती है, क्योंकि पुलवि अनेक शरीरों का आधार है, इसलिए उसकी उत्पत्ति पहले मानने में कोई बाधा नहीं आती। साधारण नियम यह है कि अनन्तानन्त निगोद जीवों का एक शरीर होता है और असंख्यातलोकप्रमाण शरीरों की एक पुलवि होती है । प्रथम समय में जितने निगोद जीव उत्पन्न होते हैं दूसरे समय में वही पर असंख्यातगुणे हीन जीव उत्पन्न होते हैं। तीसरे समय में उनसे भी असंख्यातगुणे हीन जीव उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार आवलि के असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक उत्तरोत्तर असंख्यातगुणे हीन जीव उत्पन्न होते हैं। उसके बाद क्रम से कम एक समय का और अधिक से अधिक आवलि के असंख्यातवें भागप्रमाण काल का अन्तर पड जाता है । पुन: अन्तर के बाद के समय में असंख्यातगुणे हीन जीव उत्पन्न होते हैं और यह क्रम आवलि के असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक चालू रहता है । इस प्रकार इन निगोदं जीवों की उत्पत्ति और अन्तर का क्रम कहकर श्रद्धाअल्पबहुत्व और जीव अल्पबहुत्व का विचार किया गया है। श्रद्धाअल्पबहुत्व में सान्तर समय में और निरन्तर समय में उत्पन्न होने जीवों का अल्पबहुत्व तथा इन कालों का अल्पबहुत्व विस्तार के साथ बतलाया गया है । जीव अल्पबहुत्व में काल का आश्रय लेकर जीवों का अल्पबहुत्व बतलाया गया है । इसके बाद स्कन्ध, आवास और पुलिवियों में जो बादर और सूक्ष्म निगोद जीव उत्पन्न होते हैं वे सब पर्याप्त ही होते हैं या अपर्याप्त ही होते हैं. या मिश्ररूप ही होते हैं इस प्रश्न का समाधान करते हुए प्रतिपादन किया है कि सब बादर निगोद जीव पर्याप्त ही होते हैं, क्योंकि अपर्याप्तकों की आयु कम होने से वे पहले मर जाते हैं, इसलिए पर्याप्त जीव ही होते हैं । किन्तु इसके बाद वे मिश्ररूप होते हैं, क्योंकि
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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