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________________ ४२७ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका वीरसेन स्वामी कहते हैं कि इस नयकी दृष्टि में एकक्षेत्र नहीं बनता, क्योंकि एकक्षेत्र पदका 'एक जो क्षेत्र वह एकक्षेत्र' ऐसा अर्थ करने पर आकाश की दृष्टि से एक आकाशप्रदेश उपलब्ध होता है । परन्तु यह ऋजुसूत्र की दृष्टि में एकक्षेत्रस्पर्श नहीं बन सकता, क्योंकि स्पर्श दो का होता है, और यह नय दो को स्वीकार नहीं करता । इसी प्रकार इस नयकी दृष्टि से अनन्तरक्षेत्रस्पर्श भी नहीं बनता, क्योंकि यह नय आधार-आधेयभाव को स्वीकार नहीं करता । इसी प्रकार इस नयकी दृष्टि से स्थापनास्पर्श, बन्धस्पर्श और भव्यस्पर्श का निषेध जानना चाहिए। यहां यद्यपि सूत्रगाथा में ऋजुसूत्र के विषय रूप से स्थापनास्पर्शका निषेध नहीं किया है, पर स्थापना ऋजुसूत्र का विषय नहीं है, इसलिए उसका निषेधस्वयं ही सिद्ध है । शब्दनय नामस्पर्श, स्पर्शस्पर्श और भावस्पर्श को स्वीकार करता है । इसका कारण बतलाते हुए वीरसेन स्वामी कहते हैं कि भावस्पर्श शब्दनय का विषय है, यह तो स्पष्ट ही है। किन्तु नाम के बिना भावस्पर्श का कथन नहीं किया जा सकता है, इसलिए नामस्पर्श भी शब्दनय का विषय है । और द्रव्य की विवक्षा किये बिना भी कर्कश आदि गुणों का अन्य गुणों के साथ सम्बन्ध देखा जाता है, इसलिए स्पर्शस्पर्श भी शब्दनय का विषय है। ___ आगे स्पर्शनामविधान आदि चौदह अनुयोगद्वारों का मूल में कथन न कर स्पर्शनिक्षेप आदि तेरह निक्षेपों का ही स्वरूप निर्देश किया है जो इस प्रकार है - नामस्पर्श – एक जीव, एक अजीव, नाना जीव, नाना अजीव, एक जीव और एक अजीव, एक जीव और नाना अजीव,नाना जीव और एक अजीव, तथा नाना जीव और नाना अजीव; इनमें से जिस किसी का भी 'स्पर्श' ऐसा नाम रखना नामस्पर्श है। स्थापनास्पर्श - काष्ठकर्म, चित्रकर्म, पोतकर्म आदि विविध प्रकार के कर्म तथा अक्ष और वराटक आदि जो भी संकल्पद्वारा स्पर्शरूप से स्थापित किये जाते हैं वह सब स्थापनास्पर्श है। द्रव्यस्पर्श - एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य के साथ जो सम्बन्ध होता है वह सब द्रव्यस्पर्श है । सब मिलाकर यह द्रव्यस्पर्श ६३ प्रकार का है, क्योंकि छहों द्रव्यों के एकसंयोगी ६, द्विसंयोगी १६, त्रिसंयोगी २०, चतुःसंयोगी १५, पश्चसंयोगी ६ और छहसंयोगी १, कुल ६३ संयोगी भङ्ग होते हैं। • एकक्षेत्रस्पर्श - जो द्रव्य अपने एक अवयवद्वारा अन्य द्रव्य का स्पर्श करता है उसे एकक्षेत्र स्पर्श कहते हैं। जैसे एक आकाशप्रदेश में अनन्तानन्त पुद्रलपरमाणु संयुक्त होकर या बन्ध को प्राप्त होकर निवास करते हैं।
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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