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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका ४०५ वेदना के स्वामी का विचार करते हुए कहा गया है कि जो जीव बादर पृथिवीकायिक जीवों में साधिक २००० सागरोपमों से हीन कर्मस्थिति (७० कोड़ाकोड़ि सागरोपम) प्रमाण रहा है, उनमें परिभ्रमण करता हुआ जो पर्याप्तों में बहुत बार और अपर्याप्तों में थोड़े बार उत्पन्न होता है (भवावास), पर्याप्तों में उत्पन्न होता हुआ दीर्घ आयुवालों में तथा अपर्याप्तों में उत्पन्न होता हुआ अल्प आयुवालों में ही जो उत्पन्न होता है (अद्धावास), तथा दीर्घ आयुवालों में उत्पन्न हो करके जो सर्वलघु काल में पर्याप्तियों को पूर्ण करता है, जब जब वह आयु को बांधता है तत्प्रायोग्य जघन्य योग के द्वारा ही बांधता है (आयुआवास), जो उपरिम स्थितियों के निषेक के उत्कृष्ट पद को तथा अधस्तन स्थितियों के निषेक के उत्कृष्ट पद को तथा अधस्तनस्थितियों के निषेक के जघन्य पद को करता है (अपकर्षण-उत्कर्षणआवास अथवा प्रदेशविन्यासावास), बहुत-बहुत बार जो उत्कृष्ट योगस्थानों को प्राप्त होता है (योगावास), तथा बहुत-बहुत बार जो मन्द संक्लेश परिणामों को प्राप्त होता है (संक्लेशावास) । इस प्रकार उक्त जीवों में परिभ्रमण करके पश्चात् जो बादर त्रस पर्याप्त जीवों में उत्पन्न हुआ है; उनमें परिभ्रमण कराते हए उसके विषय में पहिले के ही समान यहां भी भवाबास, अद्धावास, आयुआवास, अपकर्षण-उत्कर्षणआवास, योगावास और संक्लेशावास, इन आवासों की प्ररूपणा की गई है। उक्त रीति से परिभ्रमण करता हआ जो अन्तिम भवग्रहण में सप्तम पृथिवी के नारकियों में उत्पन्न हुआ है, उनमें उत्पन्न हो करके प्रथम समयवर्ती आहारक और प्रथम समयवर्ती तद्भवस्थ होते हुए जिसने उत्कृष्ट योग से आहार को ग्रहण किया है, उत्कृष्ट वृद्धि से जो वृद्धिगत हुआ है, सर्वलघु अन्तमुहूर्त काल में जो सब पर्याप्तियों से पर्याप्त हुआ है, वहां ३३ सागरोपम काल तक जो रहा है, बहुत-बहुत बार जो उत्कृष्ट योगस्थानों को तथा बहुत-बहुत बार बहुत संक्लेश परिणामों को जो प्राप्त हुआ है, उक्त प्रकार से परिभ्रमण करते हुए जीवित के थोड़े से अवशिष्ट रहने पर जो योगयवमध्य के ऊपर अन्तर्मुहूर्त काल रहा है, अन्तिम जीवगुणहानिस्थानान्तर में जो आवली के असंख्यातवें भाग रहा है, द्विचरम व त्रिचरम समय में उत्कृष्ट संक्लेश को प्राप्त हुआ है, तथा चरम व द्विचरम समय में जो उत्कृष्ट योग को प्राप्त हुआ है; ऐसे उपर्युक्त जीव के नारक भव के अन्तिम समय में स्थित होने पर ज्ञानावरणीय की वेदना द्रव्य से उत्कृष्ट होती है (यही गुणितकर्माशिक जीव का लक्षण है)। उक्त जीव के उतने समय में कितने द्रव्य का संचय होता है तथा वह संचय भी उत्तरोत्तर किस क्रम से वृद्धिगत होता है, इत्यादि अनेक विषयों का वर्णन श्री वीरसेन स्वामी
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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