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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका ३९० ध्रुव बन्ध - अभव्य जीवों के जो ध्रुवबन्धी प्रकृतियों का बन्ध होता है वह अनादि अनन्त होने से ध्रुव बन्ध कहलाता है । ध्रुवबन्धी प्रकृतियां ४८ हैं - ५ ज्ञानावरण, ९ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और ५ अन्तराय । . अध्रुव बन्ध - भव्य जीवों के जो कर्मबन्ध होता है वह विनश्वर होने से अध्रुव बन्ध है। अध्रुवबन्धी प्रकृतियां - ध्रुबन्धी प्रकृतियों मे से शेष ७३ प्रकृतियां अध्रुवबन्धी इनमें ध्रुवबन्धी प्रकृतियों का सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव चारों प्रकार तथा शेष प्रकृतियों का सादि व अध्रुव बन्ध ही होता है । उक्त व्यवस्थायें यथासम्भव आगे की तालिकाओं में स्पष्ट की गई हैं - बन्धोदय-तालिक संख्या प्रकृति | स्वोदयबन्धी | सान्तरबन्धी | बन्ध किस | उदय किस | पृष्ठ आदि | आदि गुणस्थान से गुणस्थान से | किस गुण- | किस गुण स्थान तक | स्थान तक १-५ | ज्ञानावरण ५ | स्वो-बन्धी निरन्तरबन्धी १-१० ६-९ | चक्षुदर्शनावरणादि ५/ , , १०-११/ निद्रा, प्रचला | स्व.परो. . १२-१४ निद्रानिद्रादि ३ १५ | सातावेदनीय सा.निर. १६ | असातावेदनीय सान्तरबन्धी १७ | मिथ्यात्व स्वो. नि. १८-२१ अनन्तानुबन्धी ४ | स्व-परो. A . . ..
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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