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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका ३८१ दिया है कि जिन जीवों के जो गुणस्थान प्रतिपादित किये गये हैं, उन्हीं जीवों के उसी प्रकार द्रव्यप्रमाणादि बतलाये गये हैं। उदाहरणार्थ, सत्प्ररूपणा के ही सूत्र २६ में जो तिर्यंचों के पांच गुणस्थान कहे गये हैं वहां धवलाकार शंका उठाते हैं कि तिर्यंच तो पांच प्रकार के होते हैं - सामान्य, पंचेन्द्रिय, पर्याप्त, तिर्यंचनी और अपर्याप्त । इनमें से किनके पांच गुणस्थान होते हैं यह सूत्र ज्ञात नहीं हो सका ? इसका वे समाधान इस प्रकार करते हैं। न तावदपर्याप्तपंचेन्द्रियतियेक्षु पंच गुणा सन्ति, लब्ध्यपर्याप्तेषु मिथ्यादृष्टिव्यतिरिक्तशेषगुणा-सम्भवात् । तत्कु तोऽवगम्यते इति चेत् 'पंचिंदियतिक्खिअपज्जत्तमिच्छाइट्ठी दव्वपमाणेण केवडिय ? 'असंखेज्जा' इति तत्रैकस्यैव मिथ्याद्दष्टिगुणस्य संख्याया: प्रतिपादकार्षात् । शेषेवु पंचापि गुणस्थानानि सन्ति, अन्यथा तत्र पंचानां गुणस्थानानां संख्यादिप्रतिपादकद्रव्याद्यार्षस्याप्रामाण्यप्रसंगात् । (पुस्तक १, पृ.२०८-२०९) इस शंका-समाधान से ये बातें सुस्पष्ट हो जाती है कि सत्त्वप्ररूपणा और द्रव्यप्रमाणादि प्ररूपणाओं का इस प्रकार अनुषंग है कि जिन जीवसमासों का जिन गुणस्थानों में द्रव्यप्रमाण बतलाया गया है उनमें उन गुणस्थानों का सत्त्व भी स्वीकार किया जाना अनिवार्य है, और यदि वह सत्त्व स्वीकार नहीं किया तो वह द्रव्यप्रमाण प्ररूपण ही अनार्ष हो जावेगा । यही बात द्रव्यप्रमाण के प्रारम्भ में भी कही गई है कि - संपहि चोदसण्हं जीवसमासाणमत्थित्तमवगदाणं सिस्साणं तेसिं चेव परिमाणपडिबोहणटुं भूदबलियाइरियो सुत्तमाह ।" (पुस्तक ३ पृ. १) . अर्थात जिन चौदह जीव समासों का अस्तित्व शिष्यों ने जान लिया है उन्हीं का परिमाण बतलाने के लिये भूतबलि आचार्य आगे सूत्र कहते हैं। तात्पर्य यह है कि मनुष्यनी के सत्व में केवल पांच और द्रव्यप्रमाणादि प्ररूपण में चौदह गुणस्थानों के प्रतिपादन की बात बन नहीं सकती। और यदि उनका द्रव्यप्रमाण चौदहों गुणस्थानों में कहा जाना ठीक है, तो यह अनिवार्य है कि उनके सत्त्व में भी चौदहों गुणस्थान स्वीकार किये जाय । एक बात यह भी कही जाती है कि जीवट्ठाण की सत्प्ररूपणा पुष्पदन्ताचार्य कृत है और शेष प्ररूपणायें भूतबलि आचार्य की। अतएव संभव है कि पुष्पदन्ताचार्य को मनुष्यनी के पांच ही गुणस्थान इष्ट हों। किन्तु यह बात भी संभव नहीं है, क्योंकि यदि उक्त सूत्र में पांच गुणस्थान ही स्वीकार किये जाय तो उसका उसी सत्प्ररूपणा के सूत्र १६४-१६५ से विरोध पड़ेगा जहां स्पष्टत: सामान्य मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य और मनुष्यनी, इन तीनों के
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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