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________________ ३५२ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका भी स्पष्ट हो जाती है जहां उक्त तीनों तिर्यचों के मिथ्यात्व से सम्यग्मिथ्यात्व, असंयतसम्यक्त्व व संयतासंयत गुणस्थान में जाने-आने का स्पष्ट विधान है। पुस्तक ५, पृ. ४० १४. शंका - सूत्र ४५ में तीन पंचेन्द्रिय तिर्यंच सम्यग्मिध्यादृष्टियों का उत्कृष्ट अन्तर बतलाते हुए अन्त में प्रथम सम्यक्त्व को ग्रहण कराकर सम्यग्मिथ्यात्व को क्यों प्राप्त कराया, सीधे मिथ्यात्व से ही सम्यग्मिथ्यात्व को क्यों नहीं प्राप्त कराया ? क्या उनके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियों की उद्वेलना हो जाती है ? (नेमीचंद रतनचंदजी, सहारनपुर ) समाधान – सूत्र नं. ३६ और ४० की टीका में केवल कथनशैली का ही भेद ज्ञात होता है, अर्थ का नहीं। यहां सम्यक्त्व से संभवत: केवल चतुर्थ गुणस्थान का ही अभिप्राय नहीं, किन्तु मिथ्यात्व को छोड़ उन सब गुणस्थानों से हैं जो प्रकृत जीवों के संभव हैं । यह बात कालानुगम के सूत्र ५८ की टीका (पुस्तक ४ पृ. ३६३) को देखने से और भी स्पष्ट हो जाती है जहां उक्त तीनों तिर्यचों के मिथ्यात्व से सम्यग्मिथ्यात्व, असंयतसम्यक्त्व व संयतासंयत गुणस्थान में जाने आने का स्पष्ट विधान है। पुस्तक ५, पृ. ४० १४. शंका – सूत्र ४५ में तीन पंचेन्द्रिय तिर्यंच सम्यग्मिथ्यादृष्टियों का उत्कृष्ट अन्तर बतलाते हुए अन्त में प्रथम सम्यक्त्व को ग्रहण कराकर सम्यग्मिथ्यात्त्व को क्यों प्राप्त कराया, सीधे मिथ्यात्व से ही सम्यग्मिथ्यात्व को क्यों नहीं प्राप्त कराया ? क्या उनके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियों की उद्वेलना हो जाती है ? (नेमीचंद रतनचंद जी, सहारनपुर) समाधान - हां, वहां उक्त दो प्रकृतियों की उद्वेलना हो जाती है । वह उद्वेलना पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र काल में ही हो जाती है, और यहां तीन पल्योपम काल का अन्तर बतलाया जा रहा है। पुस्तक ५, पृ. ४० १५. शंका - सूत्र ४५ की टीका में पंचेन्द्रिय तिर्यंच सासादनों का ही उत्कृष्ट अन्तर क्यों कहा,पंचेन्द्रिय पर्याप्त और योनिमती तिर्यंच सासादनों का क्यों नहीं कहा ? (नेमीचंद रतनचंद जी, सहारनपुर)
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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