SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 375
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका ३५१ पुस्तक ५, पृ. २८ १२. शंका – यहां सातों पृथिवियों के जीवों के सम्यक्त्व का उत्कृट अन्तर बतलाते हुए जो उन्हें अंन्तिम वार उपशम सम्यक्त्व प्राप्त कराया है ओर सासादन में ले जाकर एक और अन्तर्मुहूर्त कम कराया है सो क्यों ? यदि उपशम सम्यक्त्व को प्राप्त न कराकर क्षयोपशम सम्यक्त्व प्राप्त कराया जाता तो वह सासादन कालका अन्तर्मुहर्त कम करने की आवश्यकता न पड़ती जिससे उत्कृष्ट अन्तर अधिक पाया जा सकता था ? (नेमीचंद रतनचंद जी, सहारनपुर) समाधान - उक्त प्रकरण में क्षयोपशम सम्यक्त्व प्राप्त न कराकर उपशम सम्यक्त्व प्राप्त कराने के दो कारण दिखाई देते हैं। एक तो वहां सातों पृथिवियों का एक साथ कथन किया गया है, और सावतीं पृथिवी से सम्यक्त्व सहित निर्गमन होना संभव ही नहीं है। दूसरे क्षयोपशम सम्यक्त्व तभी प्राप्त किया जा सकता है जब सम्यक्त्व प्रकृति का सर्वथा उद्वेलन नहीं हो पाया, और उसकी सत्ता शेष है । अतएव क्षयोपशम सम्यक्त्व के स्वीकार करने में उत्कृष्ट अन्तर पल्योपमका असंख्यातवां भागमात्र काल ही प्राप्त हो सकता है। किन्तु उपशम सम्यक्त्व तभी प्राप्त हो सकता है जब सम्यक्त्व व सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियों की उद्धेलना पूरी हो चुकती है । अतएव उपशम सम्यक्त्व प्राप्त कराने से ही उक्त कुछ अन्तर्मुहूर्तो को छोड़ शेष आयुकालप्रमाण उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त हो सकता है; क्षयोपशम सम्यक्त्व प्राप्त कराने से नहीं हो सकता। पुस्तक ५, पृ. ३८ १३. शंका - सूत्र नं. ४० की टीका में तीन पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टियों का जघन्य अन्तर बतलाते हुए उन्हें केवल एक असंयतसम्यक्त्व गुणस्थान में ही क्यों प्राप्त कराया ? सूत्र नं. ३६ की टीका के समान यहां भी ‘अन्य गुणस्थान में ले जाकर' ऐसा सामान्य निर्देश कर तृतीय, चतुर्थ व पंचम गुणस्थान को प्राप्त क्यों नहीं कराया। (नेमीचंद रतनचंद जी, सहारनपुर) समाधान - सूत्र नं. ३६ और ४० की टीका में केवल कथनशैली का ही भेद ज्ञात होता है, अर्थ का नहीं । यहां सम्यक्त्व से संभवत: केवल चतुर्थ गुणस्थान का ही अभिप्राय नहीं, किन्तु मिथ्यात्व को छोड़ उन सब गुणस्थानों से है जो प्रकृत जीवों के संभव हैं। यह बात कालानुगम के सूत्र ५८ की टीका (पुस्तक ४ पृ. ३६३) को देखने से और
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy