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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका ३४८ पुस्तक १, पृ. ४०६ ४. शंका – जब सौधर्म कल्प से लेकर सर्वार्थसिद्धिपर्यन्त असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में क्षायिकसम्यम्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि तीनों ही पाये जाते हैं तब सूत्र १७० व १७१ के पृथक् रचने का क्या कारण है ? (नानकचंद जी, खतौली) समाधान – अनुदिश एवं अनुत्तरादि उपरिम विमानों में सम्यग्दृष्टि जीव ही उत्पन्न होते हैं, मिथ्यादृष्टि नहीं, इस विशेषता के ज्ञापनार्थ ही दोनों सूत्रों की पृथक रचना की गई प्रतीत होती है। पुस्तक २, पृ. ४८२ ५. शंका-तिर्यंच संयतासंयतों में क्षायिक सम्यक्त्व के न होने का कारण यह बतलाया गया है कि "वहां पर जिन अर्थात् केवली या श्रुतकेवली का अभाव है"। किन्तु कर्मभूमि में जहां संयतासंत तिर्यंच होते हैं वहां केवली व श्रुतकेवली का अभाव कैसे माना जा सकता है, वहां तो जिन व केवली होते ही हैं ? (नानकचंद जी, खतौली) समाधान - शंकाकार की आपत्ति बहुत उचित है । विचार करने से अनुमान होता है कि धवला के 'जिणाणमभावादो' पाठ में कुछ त्रुटि है । हमने अमरावती की हस्तलिखित प्रति पुन: देखी, किन्तु उसमें यही पाठ है । पर अनुमान होता है कि 'जिणाणमभावादो' के स्थान पर संभवत: 'जिणाणाभावादो' पाठ रहा है, जिसके अनुसार अर्थ यह होगा कि संयतासंयत तिर्यंच दर्शनमोहनीय कर्म का क्षपण नहीं करते हैं, क्यों कि तिर्यंचगति में दर्शनमोह के क्षपण होने का जिन भगवान् का उपदेश नहीं पाया जाता। (देखो गत्यागति चूलिका सूत्र १६४, पृ. ४७४-४७५) पुस्तक २, पृ. ५७६ ६. शंका - यंत्र १९२ में योग खाने में जो अनु. संकेत लिखा गया है उससे क्या अभिप्राय है ? (नानकचंद जी, खतौली) समाधान – अनु. से अभिप्राय अनुभय का है जिसका प्रकृत में असत्यमृषा वचन योग से तात्पर्य है। पुस्तक २, पृ. ६२९ ७. शंका - पंक्ति १७ में जो संज्ञिक तथा असंज्ञिक इन दोनों विकल्पों से रहित स्थान बतलाया है, वह कौन से गुणस्थान की अपेक्षा कहा गया है ? (नाकचंदजी, खतौती)
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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