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________________ ३४६ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका असंख्यातगुणित हैं और क्षायिकसम्यम्दृष्टियों से वेदकसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं। इस हीनाधिकता का कारण उत्तरोत्तर संचयकाल की अधिकता है । संयतासंयत गुणस्थान में क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं, क्योंकि, देश संयम को धारण करने वाले क्षायिकसम्यग्दृष्टि मनुष्यों का होना अत्यन्त दुर्लभ है । दूसरी बात यह है कि तिर्यचों में क्षायिकसम्यक्त्व के साथ देशसंयम नहीं पाया जाता है । इसका कारण यह है कि तिर्यचों में दर्शनमोहनीयकर्म की क्षपणा नहीं होती है । इसी संयतासंयत गुणस्थान में क्षायिक सम्यग्दृष्टियों से उपशमसम्यग्दृष्टि संयतासंयत असंख्यातगुणित हैं और उपशमसम्यग्दृष्टियों से वेदकसम्यग्दृष्टि संयतासंयत असंख्यातगुणित हैं। प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में उपशमसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम है, उनसे क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं, उनसे वेदकसम्यग्दृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं । इस अल्पबहुत्व का कारण संचयकाल की हीनाधिकता ही है । इसी प्रकार का सम्यक्त्वसम्बन्धी अल्पबहुत्व अपूर्वकरण आदि तीन उपशामक गुणस्थानों में जानना चाहिए। यहां ध्यान रखने की बात यह है कि इन गुणस्थानों में उपशमसम्यक्त्व और क्षायिकसम्यक्त्व, ये दो ही सम्यक्त्व होते हैं। यहां वेदकसम्यक्त्व नहीं पाया जाता है, क्योंकि, वेदकसम्यक्त्व के साथ उपशमश्रेणी के आरोहण का अभाव है। अपूर्वकरण आदि तीन गुणस्थानों में उपशमसम्यक्त्वा जीव सबसे कम हैं, उनसे उन्हीं गुणस्थानवर्ती क्षायिकसम्यक्त्वी जीव संख्यातगुणित हैं । आगे के गुणस्थानों में सम्यक्त्वसम्बन्धी अल्पबहुत्व नहीं है, क्योंकि , वहां सभी जीवों के एकमात्र क्षायिकसम्यक्त्व ही पाया जाता है । इसी प्रकार प्रारंभ के तीन गुणसथानोंमें भी यह अल्पबहुत्व नहीं है, क्योंकि, उनमें सम्यग्दर्शन होता ही नहीं है। जिस प्रकार यह औघ की अपेक्षा अल्पबहत्व कहा है, उसी प्रकार आदेश की अपेक्षा भी मार्गणास्थानों में अल्पबहुत्व जानना चाहिए । भिन्न-भिन्न मार्गणाओं में जो खास विशेषता है, वह ग्रन्थ के स्वाध्याय से ही हृदयंगम की जा सकेगी। किन्तु स्थूलरीति का अल्पबहुत्व द्रव्यप्रमाणानुगम (भाग३) पृष्ठ ३८ से ४२ तक अंकसंदृष्टि के साथ बताया गया है, जो कि वहां से जाना जा सकता है। भेद केवल इतना ही है कि वहां वह क्रम बहुत्व से अल्प की ओर रक्खा गया है। इन प्ररूपणाओं का मथितार्थ साथ में लगाये गये नक्शों से सुस्पष्ट हो जाता है । इस प्रकार अल्पबहुत्वप्ररूपणा की समाप्ति साथ जीवस्थाननामक प्रथम खंड की आठों प्ररूपणाएं समाप्त हो जाती हैं।
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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