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________________ ३४० षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका की विशुद्धि के निमित्त से सम्यक्त्व को प्राप्तकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती हुआ। यह चतुर्थ गुणस्थान में सबसे छोटे अन्तर्मुहूर्त प्रमाण सम्यक्त्व के साथ रहकर संक्लेश आदि के निमित्त से गिरा और मिथ्यात्व को प्राप्त हो गया, अर्थात् पुन: मिथ्यादृष्टि हो गया। इस प्रकार मिथ्यात्व गुणस्थान को छोड़कर अन्य गुण स्थान को प्राप्त होकर पुन: उसी गुणस्थान में आने के पूर्व तक जो अन्तर्मुहूर्तकाल मिथ्यात्वपर्याय से विरहित रहा, यही उस एक जीव की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का जघन्य अन्तर माना जायेगा ? ___ इसी एक जीव की अपेक्षा मिथ्यात्व का उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो छयासठ अर्थात् एक सौ बत्तीय (१३२) सागरोपम काल है । यह उत्कृष्ट अन्तरकाल इस प्रकार घटित होता है कि कोई एक मिथ्यादृष्टि तिर्यंच अथवा मनुष्य चौदह सागरोपम आयुस्थिति वाले लान्तवकापिष्ठ कल्पवासी देवों में उत्पन्न हुआ । वहां वह एक सागरोपम काल के पश्चात् सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ। तेरह सागरोपम काल वहां सम्यक्त्व के साथ रहकर च्युत हो मनुष्य हो गया । उस मनुष्यभव में संयम को, अथवा संयमासंयम को पालन कर बाईस सागरोपम आयु की स्थितिवाले आरण-अच्युत कल्पवासी देवों में उत्पन्न हुआ। वहां से च्युत होकर पुनः मनुष्य हुआ । इस मनुष्यभव में संयम धारण कर मरा और इकतीस सागरोपम की आयु वाले उपरिम ग्रैवेयक के अहमिन्द्रों में उत्पन्न हुआ । वहां से च्युत हो मनुष्य हुआ, और संयम धारण कर पुन: उक्त प्रकार से बीस, बाईस और चौबीस सागरोपम की आयुवाले देवों और अहमिन्द्रों में क्रमश: उत्पन्न हुआ । इस प्रकार वह पूरे एक सौ बत्तीस (१३२) सागरों तक सम्यक्त्व के साथ रहकर अन्त में पुन: मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ। इस तरह मिथ्यात्व का उत्कृष्ट अन्तर सिद्ध हो गया । उक्त विवेचन में यह बात ध्यान रखने की है कि वह जीव जितने बार मनुष्य हुआ, उतने बार मनुश्यभवसम्बन्धी आयु से कम ही देवायु को प्राप्त हुआ, अन्यथा बतलाए गए काल से अधिक अन्तर हो जायेगा । कुछ कम दो छयासठ सागरोपम कहने का अभिप्राय यह है कि वह जीव दो छयासठ सागरोपम काल के प्रारंभ में ही मिथ्यात्व को छोड़कर सम्यक्त्वी बना और उसी दो छयासठ सागरोपमकाल के अन्त में पुन: मिथ्यात्व को प्राप्त हो गया। इसलिए उतना काल उनमें से घटा दिया गया। यहां ध्यान रखने की खास बात यह है कि काल-प्ररूपणा में जिन-जिन गुणस्थानों का काल नानाजीवों की अपेक्षा सर्वकाल बतलाया गया है, उन-उन गुणस्थानवी जीवों का नानाजीवों की अपेक्षा अन्तर नहीं होता है । किन्तु उनके सिवाय शेष सभी गुणस्थानवर्ती जीवों की नानाजीवों की तथा एक जीव की अपेक्षा अन्तर होता है । इस प्रकार नानाजीवों की अपेक्षा कभी भी विरह को नहीं प्राप्त होने वाले छह गुणस्थान हैं - १ मिथ्यादृष्टि, २
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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