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________________ शंका-समाधान पुस्तक ४, पृष्ट ३८ १. शंका - पृष्ठ ३८, पर लिखा है - 'मिच्छाइट्ठिस्स सेस-तिण्णि विसेसणाणि ण संभवंति, तक्कारणसंजमादिगुणाणमभावादो' यानी तैजससमुद्धात प्रमुत्तगुणस्थान पर ही होता है, सो इसमें कुछ शंका होती है। क्या अशुभ तैजस भी इसी गुणस्थान पर होता है ? प्रमुत्तगुणस्थान पर ऐसी तीव्र कषाय होना कि सर्वस्व भस्म कर दे और स्वयं भी उससे भस्म हो जाय और नरक तक चला जाय, ऐसा कुछ समझ में नहीं आता ? समाधान - मिथ्यादृष्टि के शेष तीन विशेषण अर्थात् आहारकसमुद्धात, तैजससमुद्धात और केवलिसमुद्धात संभव नहीं है, क्योंकि, इनके कारणभूत संयमादि गुणों का मिथ्यादृष्टि के अभाव है । इस पंक्ति का अर्थ स्पष्ट है कि जिन संयमादि विशिष्ट गुणों के निमित्त से आहारकऋद्धि आदि की प्राप्ति होती है, वे गुण मिथ्यादृष्टि जीव के संभव नहीं हैं। शंकाकार के द्वारा उठाई गई आपत्ति का परिहार यह है कि तैजसशक्ति की प्राप्ति के लिये भी उस संयम-विशेष की आवश्यकता है जो कि मिथ्यादृष्टि जीव के हो नहीं सकता। किन्तु अशुभतैजस का उपयोग प्रमत्तसंयत साधु नहीं करते। जो करते हैं, उन्हें उस समय भावलिंगी साधु नहीं, किन्तु द्रव्यलिंगी समझना चाहिए। पुस्तक ४, पृष्ठ ४५ २ शंका - विदेह में संयतराशि का उत्सेध ५०० धनुष लिखा है, सो क्या यह विशेषता की अपेक्षा से कथन है, या सर्वथा नियम ही हैं ? (नानकचन्द्र जैन, खतौली, पत्र ता. १-४-४२) समाधान - विदेह में संयतराशिका ही उत्सेध नहीं, किन्तु वहां उत्पन्न होने वाले मनुष्य मात्र का उत्सेध पांच सौ धनुष होता है, ऐसा सर्वथा नियम ही है जैसा कि उसी चतुर्थ भाग के पृ. ४५ पर आई हुई “एदाओ दो वि ओगाहणाओ भरह-इरावएसु चेव होति ण विदेहेसु, तत्थ पंचधणुस्सदस्सेधणियमा" इस तीसरी पंक्ति से स्पष्ट है । उसी पंक्ति पर तिलोयपण्णत्ती से दी गई टिप्पणी से भी उक्त नियम की पुष्टि होती है । विशेष के लिए देखो तिलोयपण्णत्ती, अधिकार ४, गाथा २२५५ आदि । पुस्तक ४, पृष्ठ ७६ ३. शंका - पृष्ठ ७६ में मूल में 'मारणंतिय ' के पहले का 'मुक्क' शब्द अभी विचारणीय प्रतीत होता है ? (जैन संदेश, ता. २३-४-४२)
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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