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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका २८४ प्रकृत में अनादि-अनन्त और अनादि-सान्त मिथ्यात्व के काल को छोड़कर सादिसन्त मिथ्यात्व काल की ही विवक्षा की गई है, और उसी की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का जघन्य और उत्कृष्ट काल बतलाया गया है। मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का जघन्य काल अन्तर्मुहुर्त बतलाया गया है, जिसका अभिप्राय यह है कि यदि कोई सम्यग्मिथ्यादृष्टि, या असंयतसम्यम्दृष्टि या संयतासंयत या प्रमत्तसंपत जीव परिणामों के निमित्त से मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ और मिथ्यात्वदशा में सबसे छोटे अन्तर्मुहुर्तकाल तक रहकर पुन: सम्यग्मिथयात्व को, या असंयतसम्यक्त्व को, या संयमासंयम अथवा अप्रमत्तसंयम को प्राप्त हो गया, तो ऐसे जीव के मिथ्यात्वका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण पाया जाता है। ऐसे मिथ्यात्व को सादि-सान्तकहते हैं, क्योकि, उसका आदि और अन्त, दोनों पाये जाते हैं। इसी सादि-सन्त मिथ्यात्व का उत्कृष्ट काल कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है । इसका अभिप्राय यह है कि जब कोई जीव प्रथम बार सम्यक्त्वी होकर पुन: मिथ्यात्वी हो जाता है तो वह अधिक से अधिक अर्धपुद्गल-परिवर्तन काल के भीतर अवश्य ही पुनः सम्यक्त्व प्राप्त करमोक्ष चला जाता है। (अर्धपुद्गलपरिवर्तन काल के लिये देखिये पृ. ३२५-३३२) इसी प्रकार शेष गुणस्थानों के भी जघन्य और उत्कृष्ट काल बतलाये गये हैं।
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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