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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका २७८ कषायों के कारण जीव-प्रदेशों के विस्तार को कषायसमुद्धात कहते हैं। इसी प्रकार अपने स्वाभाविक शरीर के आकार को छोड़कर अन्य शरीराकार परिवर्तन को वैक्रियिकसमुद्धात, मरने के समय अपने पूर्व शरीर को न छोड़कर नवीन उत्पत्तिस्थान तक जीव प्रदेशों के विस्तार को मारणान्तिक, तैजसशरीर की अप्रशस्त व प्रशस्त विक्रिया को तैजसमुद्धात, ऋद्धि प्राप्त मुनियों के शंका-निवारणार्थ जीव प्रदेशों के प्रस्तार को आहारकसमुद्धात और सर्वज्ञताप्राप्त केवली के प्रदेशों का शेष कर्मक्षय-निमित्त दंडाकार, कपाटाकार, प्रतराकार, व लोकपूरणरूप प्रस्तार को केवलिसमुद्धात कहते हैं - जीवका अपनी पूर्व पर्याय को छोड़कर तीर के समान सीधे, व एक, दो या तीन मोड़े लेकर अन्य पर्याय के ग्रहणक्षेत्र तक गमन करने को उपपाद कहते हैं । इन्हीं दश-अर्थात् (१) स्वस्थानस्वस्थान (२) विहारवत्स्वस्थान (३) वेदनासमुद्धात (४) कषायसमुद्धात (५) वैक्रियिकसमुद्धात (६) मारणान्तिकसमुद्धात (७) तैजससमुद्धात (८) आहारकसमुद्धात (९) केवलिसमुद्धात ओर (१०) उपपाद अवस्थाओं की अपेक्षा से यथासम्भव जीव के भिन्न-भिन्न गुणस्थानों और मार्गणास्थानों का क्षेत्रप्रमाण • इस क्षेत्ररूपणा में बतलाया गया है । सूक्ष्म, सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम क्षेत्रमान के लिये धवलाकार ने पांच प्रकार से लोक का ग्रहण किया है (१) समस्त लोक या सामान्य लोक जो ७ राजुका धनप्रमाण है (२) अधोलोक जो १९६ घनराजुप्रमाण है (३) ऊर्ध्वलोक जो १४७ घनराजुप्रमाण है (४) तिर्यकलोक या मध्यलोक जो १ राजु के प्रतर या वर्ग प्रमाण है; और (५) मनुष्यलोक जो अढ़ाई द्वीपप्रमाण, अर्थात् ४५ लाख व्यासवाला वर्तुलाकार क्षेत्र है । किसी भी एक प्रकार के जीवों का क्षेत्रमान बतलाने के लिये धवलाकार ने उस उस जातिविशेषवाली प्रधान राशि को लेकर उसके क्षेत्रावगाहनका विचार किया है । उदाहरणार्थ- विहारवत्स्वस्थान वाले मिथ्यादृष्टियों के क्षेत्र का विचार करते समय उन्होंने त्रसपर्याप्तराशि को ही विहार करने की योग्यता रखनेवाली मानकर पहले यह निर्दिष्ट कर दिया कि किसी भी समय में इस राशि का संख्यातवां भाग ही विहार करेगा । फिर उन्होंने इस विहार करनेवाली राशि में स्वयंप्रभनागेन्द्र पर्वत के परभागवर्ती बड़े-बड़े त्रस जीवों का विचार किया, जिनमें द्वीन्द्रिय जीव शंख बारह योजनका, त्रीन्द्रिय गोम्ही तीन कोसकी, चतुरिन्द्रिय भ्रमर एक योजनका और पंचेन्द्रिय मच्छ एक हजार योजन का होता है । अतएव ऐसे प्रत्येक जीव का उन्होंने क्षेत्रमिति के सूत्र व विधान देकर प्रमाणांगुलों में घनफल निकाला, और फिर इस उत्कृष्ट अवगाहना में जघन्य अवगाहनाका अंगुल का असंख्यातवां भाग जोड़कर उसका आधा
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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