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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका २७३ के आधार पर किया था। किन्तु दो प्रतियों में उसके स्थान पर 'रूपदशपृथक्त्व' पाठ था, और मूडबिद्री के प्रति-मिलान से भी इसी पाठ की पुष्टि हुई है । अत: इससे वह संदर्भ और भी शंकास्पद और विचारणीय हो गया है । अतएव जब तक कोई स्पष्ट प्रमाण इस सम्बन्ध का न मिल जावे तब तक उस सम्बन्ध में निर्णयात्मक कुछ नहीं कहा जा सकता। पुस्तक ३, पृ.३५ __१३. शंका - "रज्जु के अर्थधच्छेद उत्तरोत्तर एक एक द्वीप और एक-एक समुद्र में पड़ते हैं, किन्तु लवणसमुद्र में दो अर्धच्छेद पड़ेंगें।" यह बात समझ में नहीं आती । जब धातकीखंड में एक अर्धच्छेद पड़ेगा, और लवणसमुद्र उसका आधा है, तब उसमें दो अर्धच्छेद कैसे पड़ जायेंगे ? (नेमीचंद जी वकील, सहारनपुर, पत्र २३.११.४१) समाधान - उपर्युक्त शंका का समाधान रज्जु के अर्धच्छेदों की व्यवस्था को स्पष्टत: समझ लेने से सहज ही हो जाता है। समस्त तिर्यग्लोक एक रज्जुप्रमाण है । अत: रज्जु को प्रथम बार आधा करने से प्रथम अर्धच्छेद जम्बूद्वीप के मध्य में मेरुपर पड़ा। दूसरी बार जब हम रज्जु को आधा करेंगे तो यह दूसरा अर्धच्छेद स्वयंभूरमणद्वीप की परिधि से कुछ आगे चलकर स्वयंभूरमण समुद्र में पड़ेगा, क्योंकि, उक्त समुद्र का विस्तार भीतर के समस्त द्वीप-समुद्रों के सम्मिलित विस्तार से कुछ अधिक पड़ेगा, क्योंकि, उक्त समुद्र का विस्तार भीतर के समस्त द्वीप-समुद्रों के सम्मिलित विस्तार से कुछ अधिक है। इसी प्रकार रज्जु को तीसरी बार आधा करने पर तीसरा अर्धच्छेद स्वयंभूरमणद्वीप में उसकी प्रारम्भिक सीमा से कुछ और विशेष आगे चलकर पड़ेगा । इस प्रकार रज्जु उत्तरोत्तर छोटा होता जावेगा और उत्तरोत्तर अर्धच्छेद प्रत्येक द्वीप-समुद्र में पड़ते जावेंगे, किन्तु उनका स्थान उस-उस द्वीप-समुद्र की भीतरी परिधि से उत्तरोत्तर आगे को बढ़ता जावेगा । इस प्रकार होते होते अन्तिम समुद्र लवणसागर में एक अर्धच्छेद उसकी बाहा सीमा के समीप और दूसरा उसकी भीतरी सीमा के समीप पड़ जावेगा । यही बात निम्न चित्र से और भी स्पष्ट हो जावेगी। मान लो कि स्वयंभूरमणसमुद्र जम्बूद्वीप से आगे तीसरे बलय परहै, और उसी की बाहा सीमा पर रज्जु का अन्त होता है । रज्जु का प्रथम अर्धच्छेद तो जम्बूद्वीप के मध्य में मेरु पर पड़ेगा ही। अब वहां से आगे का विस्तार पचार हजार योजन को १ मान लेने पर केवल १+ ४+ ८+ १६ - २९ योजन रहा ।
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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