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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका मान्यतानुसार शेष सब काल के गाल में समा गया । किन्तु जितना भी शेष बचा है वह भी विषय और रचना की दृष्टि से हिमाचल जैसा विशाल और महोदधि जैसा गंभीर है। उसके विवेचन की सूक्ष्मता और प्रतिपादन के विस्तार को देखने से हम जैसे अल्पज्ञानियों की बुद्धि चकरा जाती है और अच्छे अच्छे विद्वानों का भी गर्व खर्व होने 'लगता है । हम ऐसी उच्च और विपुल साहित्यिक सम्पत्ति के उत्तराधिकारी हैं इसका हमें भारी गौरव है । ७ इस गौरव की वस्तु के एक अंश को प्रस्तुत रूप में पाकर पाठक प्रसन्न होंगे। किन्तु इसके तैयार करने में हमें जो अनुभव मिला है उससे हमारा हृदय भीतर ही भीतर खेद और विषाद के आवेग से रो रहा है । इन सिद्धान्त ग्रंथों में जो अपार ज्ञाननिधि भरी हुई है उसका गत कई शताब्दियों में हमारे साहित्य को कोई लाभ नहीं मिल सका, क्योंकि, इनकी एकमात्र प्रति किसी प्रकार तालों के भीतर बन्द हो गई और अध्ययन की वस्तु न रहकर पूजा की वस्तु बन गई । यदि ये ग्रंथ साहित्य - क्षेत्र में प्रस्तुत रहते तो उनके आधार से अब तक न जाने कितना किस कोटि का साहित्य निर्माण हो गया होता और हमारे साहित्य को कौनसी दिशा व गति मिल गई होती । कितनी ही सैद्धान्तिक गुत्थियां जिनमें विद्वत्समाज के समय और शक्तिका न जाने कितना ह्रास होता रहता है, यहां सुलझी हुई पड़ी हैं। ऐसी विशाल सम्पत्ति पाकर भी हम दरिद्री ही बने रहे और इस दरिद्रता का सबसे अधिक सन्ताप और दुःख हमें इनके संशोधन करते समय हुआ । जिन प्रतियों को लेकर हम संशोधन करने बैठे वे त्रुटियों और स्खलनों से परिपूर्ण हैं । हमें उनके एक एक शब्द के संशोधनार्थ न जाने कितनी मानसिक कसरतें करनी पड़ी हैं और कितने दिनों तक रात के दो-दो बजे तक बैठकर अपने खून को सुखाना पड़ा है । फिर भी हमने जो संशोधन किया उसका सोलहों आने यह भी विश्वास नहीं कि वे ही आचार्य - रचित शब्द हैं । और यह सब करना पड़ा, जब कि मूडविद्री की आदर्श प्रतियों के दृष्टिपात मात्र से संभवत: उन कठिन स्थलों का निर्विवाद रूप से निर्णय हो सकता था । हमें उस मनुष्य के जीवन जैसा अनुभव हुआ जिसके पिता की अपार कमाई पर कोई ताला लगाकर बैठ जाय और वह स्वयं एक एक टुकड़े के लिये दर-दर भीख मांगता फिरे और इससे जो हानि हुई वह किसकी ? जितना समय और परिश्रम इनके संशोधन में खर्च हो रहा है उससे मूल प्रतियों की उपलब्धि में न जाने कितनी साहित्य सेवा हो सकती थी और समाज का उपकार किया जा सकता था । ऐसे ही समय और शक्ति के अपव्यय से समाज की गति रुकती है। इस मंदगति से न जाने
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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