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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका जिन कार्यों में जिस-जिस प्रकार हमनें प्रेमीजी की सहायता ली है और उन्हें उनकी वृद्धावस्था में कष्ट पहुंचाया है उसका यहां विवरण न देकर इतना ही कहना वश है कि हमारी इस कृति के कलेवर में जो कुछ उत्तम और सुन्दर है उसमें हमारे प्रेमीजी का अनुभवी और कुशल हाथ प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से विद्यमान है। बिना उनके तात्कालिक सत्परामर्श, सदुपदेश और सत्साहाय्य के न जाने हमारे इस कार्य की क्या गति होती। जैसा भूमिका से ज्ञात, प्रस्तुत ग्रंथ के संशोधन में हमें सिद्धान्तभवन, आरा व महावीर ब्रह्मचर्याश्रम, कारंजा की प्रतियों से बड़ी सहायता मिली है, इस हेतु हम इन दोनों संस्थाओं के अधिकारियों के व प्रति की प्राप्ति में सहायक पं. के. भुजबली शास्त्री व पं. देवकीनन्दनजी शास्त्री के बहुत कृतज्ञ हैं। जिन्होंने हमारी प्रश्नावली का उत्तर देकर हमें मूडविद्री से व तत्पश्चात् सहारनपुर से प्रतिलिपि बाहर आने का इतिहास लिखने में सहायता दी उनका हम बहुत उपकार मानते हैं। उनकी नामावली अन्यत्र प्रकाशित है। इनमें श्रीमान् सेठ रावजी सखारामजी दोशी, सोलापुर, पं. लोकनाथजी शास्त्री, मूडविद्री व श्रीयुक्त नेमिचन्द्रजी वकील, उसमानाबाद का नाम विशेष उल्लेखनीय है। अमरावती के सुप्रसिद्ध, प्रवीण ज्योतिर्विद् श्रीयुक्त प्रेमशंकरजी दबे की सहायता से ही हम धवला की प्रशस्ति के ज्योतिष सम्बन्धी उल्लेखों की छानबीन और संशोधन करने में समर्थ हुए हैं। इस हेतु हम उनके बहुत कृतज्ञ हैं । इस ग्रंथ का मुद्रण स्थानीय सरस्वती प्रेस में हुआ है। यह कचित् ही होता है कि सम्पादक को प्रेस के कार्य और विशेषत: उसी मुद्रण की गति और वेग से सन्तोष हो । किन्तु इस प्रेस के मैनेजर मि. टी. एम. पाटील को हम हार्दिक धन्यवाद देते हैं कि उन्होंने हमारे कार्य में भी असन्तोष का कारण उत्पन्न नहीं होने दिया और अल्प समय में ही इस ग्रंथ का मुद्रण पूरा करने में उन्होंने व उनके कर्मचारियों ने बेहद परिश्रम किया है। इस वक्तव्य को पूरा करते समय हृदय के पावित्र्य और दृढ़ता के लिये हमारा ध्यान पुनः हमारे तीर्थंकर भगवान् महावीर व उनकी धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबलि तक की आचार्य परम्परा की ओर जाता है जिनके प्रसाद-लव से हमें यह साहित्य प्राप्त हुआ है। तीर्थंकरों और केवलज्ञानियों का जो विश्वव्यापी ज्ञान द्वादशांग साहित्य में ग्रथित हुआ था, उससे सीधा सम्बन्ध रखने वाला केवल इतना ही साहित्यांश बचा है जो धवल, जयधवल व महाधवल कहलाने वाले ग्रंथों में निबद्ध हैं; दिगम्बर १. इसके छपते हमें समाचार मिला है कि दोशीजी का २० अक्टूबर को स्वर्गवास हो गया, इसका हमें अत्यन्त शोक है । हमारे समाज का एक भारी कर्मठ पुरुषरत्न उठ गया।
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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