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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
नश्यत्येव ध्रुवं सर्व श्रुताभावात्र शासनम् । तस्मात्सर्वप्रयत्नेन श्रुतसारं समुद्धरेत् ।। श्रुतात्तात्त्वपरामर्शः श्रुतात्समयवर्द्धनम् । तीर्थेशाभावतः सर्व श्रुताधीनं हि शासनम् ॥ ३, ६३,-६४.
इस प्रकार प्राचीन श्रावकाचार-ग्रंथों ने गृहस्थों के लिये न केवल सिद्धान्ताध्ययन का निषेध नहीं किया, किन्तु प्रबलता से उसका उपदेश दिया है। हम ऊपर बतला ही आये हैं कि स्वयं भगवान् कुंदकुंदाचार्य अपने सूत्रपाहुड में जिनभगवान् के कहे हुए सूत्र के अर्थ के ज्ञान को सम्यग्दर्शन का अत्यन्त आवश्यक अंग कहते हैं, और सूत्रार्थ से जो च्युत हुआ उसे वे मिथ्यादृष्टि समझते हैं।
__ सिद्धान्त किसे कहना चाहिये, इस बात की पुष्टि में केवल इन्द्रनन्दि और विबुधश्रीधरकृत श्रुतावतारों के ऐसे अवतरण दिये गये हैं, जिनमें कर्मप्राभृत और कषायप्राभृत को 'सिद्धान्त' कहा गया है, तथा अप्रभंश कवि पुष्पदन्त का वह अवतरण दिया है जहां उन्होंने धवल और जयधवल को सिद्धान्त कहा है। किन्तु इन ग्रन्थों के सिद्धान्त कहेजाने से अन्य ग्रंथ सिद्धान्त नहीं रहे, यह कौन से तर्क से सिद्ध हुआ, यह समझ में नहीं आता। इस सिलसिले में गोम्मटसार को असिद्धान्त सिद्ध करने के लिये गोम्मटसार की टीका के वे अंश उद्धृत किये गये हैं जिनमें कहा गया है कि “इस कथन से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि गोम्मटसार सिद्धान्तग्रंथ नहीं है, किन्तु सिद्धान्त ग्रंथों से सार लेकर बनाया गया है । सिद्धान्त ग्रंथ दो ही है, यह बात भी इन पंक्तियों से सिद्ध हो जाती है।" किन्तु उन पंक्तियों मे हमें ऐसा व्यवच्छेदक भाव जरा भी दृष्टिगोचर नहीं होता । न तो लेखक सिद्धान्त की कोई परिभाषा दे सके, जिससे केवल उक्त दो ही सिद्धान्त-ग्रंथ ठहर जायें और अन्य गोम्मटसारादि ग्रंथ सिद्धान्तश्रेणी के बाहर पड़ जाये । और न कोई ऐसा प्राचीन उल्लेख ही बता सके, जहां कहा गया हो कि सिद्धान्त-ग्रंथ केवल दो ही हैं, अन्य नहीं। यथार्थ बात तो यह है कि सिद्धान्त, आगम, प्रवचन ये सब शब्द एकही अर्थ के पर्यायवाची शब्द हैं। स्वयं धवलाकार ने कहा है - 'आगमो सिद्धंतो पवयणमिदि एयद्यो' (सत्प्र. १ पृ.२०)
. अर्थात्, आगम, सिद्धान्त, प्रवचन, ये सब एक ही अर्थ के बोधक शब्द हैं। लेखक ने भी आगम और सिद्धान्त को एकार्थवाची स्वीकार किया है । यही नहीं, किन्तु गृहस्थों को सिद्धान्ताध्ययन का निषेध करने वाले पूर्वोक्त साधारण परस्पर-विरोधी कथन करने वाले और युक्ति-हीन वाक्यों को भी वे 'आगम' करके मानते हैं। किन्तु सिद्धान्तों के