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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
२२८ अमम, हाहांग और हाहा', हुहांग और हूहू, लतांग और लता, तथा महालतांग और महालता क्रमशः होते हैं। फिर चौरासी लाख गुणित क्रम से श्रीकल्प (या शिर:कंप), हस्तप्रहेलित (हस्तप्रहेलिका) और अचलप्र (चर्चिका) होते हैं । चौरासी को इकतीस बार परस्पर गुणा करने से अचलप्रकी वर्षों का प्रमाण आता है, जो नब्बे शून्यांकों का होता है । यद्यपि इन नयुतांगादि काल-गणनाओं का उल्लेख प्रस्तुत ग्रंथ भाग में नहीं आया, तथापि संख्यात गणना की मान्यता का कुछ बोध कराने के लिये यह सब यहां दी गई हैं। यब सब संख्यात (मध्यम) का ही प्रमाणहै । इससे कई गुणे ऊपर जाकर उत्कृष्ट संख्यात का प्रमाण होता है जो ऊपर गणना-माप में बता ही आये हैं।
___ आगे क्षेत्रप्रमाण में बतलाये जाने वाले एक प्रमाण योजन (अर्थात् दो हजार कोश) लम्बा चौड़ा और गहरा कुंड बनाकर उसे उत्तम भोगभूमि के सात दिन के भीतर उत्पन्न हुए मेदेके रोमानों (जिनके और खंड कैची से न हो सकें) से भर दे, और उनमें से एक एक रोमखंडों को सौ सौ वर्ष में निकाले । इस प्रकार उन समस्त रोमों को निकालने में जितना काल व्यतीत होगा, उसे व्यवहारपल्य कहते हैं। उक्त रोमों की कुल संख्या गणित से ४५ अंक प्रमाण आती है, और तदनुसार व्यवहारपल्य का प्रमाण शताब्दियां अथवा ४७ अंक प्रमाण वर्ष हुआ।
इस व्यवहार पल्य को असंख्यात कोटि वर्षों के समयों से गुणित करने पर उद्धारपल्य का प्रमाण आता है, जिससे द्वीप-समुद्रों की गणना की जाती है । इस उद्धारपल्य को असंख्यात कोटि वर्षों के समयों से गुणित करने पर अद्धापल्य का प्रमाण आता है । कर्म, भव, आयु और काय, इनकी स्थिति के प्रमाण में इसी अद्धापल्य का उपयोग होता है। जीवद्रव्य की प्रमाण-प्ररूपणा में भी यथावश्यक इसी पल्यापम का उपयोग किया गया है। एक करोड़ को एक करोड़ से गुणा करने पर जो लब्ध आता है उसे कोड़ाकोड़ी कहते हैं। दस कोड़ाकोड़ी अद्धापल्योपमों का एक अद्धासागरोपम और दस कोड़ाकोड़ी अद्धासागरोपमों की एक उत्सर्पिणी और इतने ही काल की एक अवसर्पिणी होती है। इन दोनों को मिलाकर एक कल्पकाल होता है।
३. क्षेत्रप्रमाण - पुद्गल द्रव्य के उस सूक्ष्मातिसूक्ष्म भाग को परमाणु कहते हैं जिसका पुन: विभाग न हो सके, जो इन्द्रियों द्वारा ग्राह्य नहीं और जो अप्रदेशी तथा अंत,
१. हाहांग और हाहा नामक संख्याओं के नाम राजवार्तिक व हरिवंशपुराण के कालविवरण में नहीं
पाये जाते। २. यह तिलोयपण्णत्ति के अनुसार है। किन्तु चौरासी को इकतीस वार परस्पर गुणित करने से (८४)२ णद्भश्रीगुरूरू के अनुसार केवल साठ (६०) अंकप्रमाण ही संख्या आती है।