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________________ षखंडागम की शास्त्रीय भूमिका का चेहरा एकदम चमक उठा और उनमें न जाने कहां की स्फूर्ति आ गई। वे हम लोगों से बिना कुछ कहे सुने वहां से चल दिये। रात के कोई एक बजे लौटकर उन्होंने मुझे जगाया और एक पुर्जा मेरे हाथ में दिया जिसमें सेठ लक्ष्मी चन्द्र जी ने साहित्योद्धार के लिये दस हजार के दान की प्रतिज्ञा की थी। इस दान के उपलक्ष्य में दसरे दिन प्रातःकाल उपस्थित समाज ने सेठ जी को श्रीमन्त सेठ की पदवी से विभूषित किया। आगामी गर्मी की छुट्टियों में जज साहब मुझे लेकर भेलसा पहुंचे और वहां सेठ राजमल जी बड़जात्या व श्रीमान् तखतमल जी वकील के सहयोग से सेठ जी के उक्त दान का ट्रस्ट रजिस्ट्री करा लिया गया और यह भी निश्चय हो गया कि उस द्रव्य से श्री धवलादि सिद्धांतों के संशोधन प्रकाशन का कार्य किया जाये। गर्मी के पश्चात् अमरावती लौटने पर मुझे श्रीमन्त सेठजी के दानपत्र की सद्भावना को क्रियात्मक रूप देने की चिन्ता हुई। पहली चिन्ता धवल जयधवल की प्रतिलिपि प्राप्त करने की हुई। उस समय इन ग्रंथों को प्रकाशित करने के नाम से ही धार्मिक लोग चौकन्ने हो जाते थे और उस कार्य के लिये कोई प्रतिलिपि देने के लिये तैयार नहीं थे। ऐसे समय में श्रीमान् सिंघई पन्नालाल जी ने व अमरावती पंचायत ने सत्साहस करके अपने यहां की प्रतियों का सदुपयोग करने की अनुमति दे दी। इन प्रतियों के सूक्ष्मावलोकन से मुझे स्पष्ट हो गया कि यह कार्य अत्यन्त कष्टसाध्य है क्योंकि ग्रंथों का परिमाण बहुत विशाल, विषय अत्यन्त गहन और दुरूह, भाषा संस्कृत मिश्रित प्राकृत, और प्राप्तय प्रति बहुत अशुद्ध व स्खलन-प्रचुर ज्ञात हुई। हमारे सम्मुख जो धवल और जयधवल की प्रतियां थीं उनमें से जयधवल की प्रति सीताराम शास्त्री की लिखी हुई थी और दूसरी की अपेक्षा कम अशुद्ध जान पड़ी। अत: मैंने इसके प्रारम्भ का कुछ अंश संस्कृत रूपान्तर और हिन्दी भाषान्तर सहित छपाकर चुने हुए विद्धानों के पास इस हेतु भेजा कि वे उसके आधार से उक्त ग्रंथों के सम्पादन प्रकाशनादि के सम्बंध में उचित परामर्श दे सकें। इस प्रकार मुझे जो सम्मतियां प्राप्त हो सकीं उन पर से मैने सम्पादन कार्य के विषय में निम्न निर्णय किये - १. सम्पादन कार्य धवला से ही प्रारम्भ किया जाये, क्योंकि, रचना-क्रम की दृष्टि से तथा प्रचलित परंपरा में इसी का नाम पहले आता है। २. मूलपाठ एक ही प्रति के भरोसे न रखा जाय । समस्त प्रचलित प्रतियां एक ही आधुनिक प्रति की प्रायः एक ही हाथ की नकलें होते हुए भी उनमें से जितनी मिल
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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