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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका २१० समाधान - 'दुकयंत' का संस्कृत रूपान्तर है 'दुष्कृतान्त' जिसका अर्थ दुष्कृत अर्थात् पापों का अन्त करने वाले सुस्पष्ट है । ५. शंका - गाथा ५ में '-वई सया दंत' पाठ है, जिसका रूपान्तर होगा ‘-पतिं सदा दन्तं' । इसमें हमें समझ नहीं पड़ता कि 'दन्त' शब्द से इंद्रियदमन का अर्थ किस प्रकार लाया जा सकता है ? (विवेकाभ्युदय, २०.१०.४०) समाधान - प्राकृत में 'दंतं' शब्द 'दान्त' के लिये भी आता है । यथा, 'दंतेण चित्तेण चरंति धीरा' (प्राकृतसूक्तरत्नमाला) पाइअसहमहण्णओ कोष में 'दंत' का अर्थ 'जितेन्द्रिय' दिया गया है । इसी के अनुसार 'निरन्तर पंचेन्द्रियोंका दमन करने वाले' ऐसा अनुवाद कियागयाहै। ६. शंका - गाथा ६ में 'विणिहयवम्महसपरं' का अर्थ होना चाहिये 'जिन्होंने ब्रह्माद्वैत की व्यापकता को नष्ट कर दिया है और निर्मलज्ञान के रूप में ब्रह्म की व्यापकता को बढ़ाया है। (विवेकाभ्युदय, २०.१०.४०) समाधान - जब काव्य में एक ही शब्द दो बार प्रयुक्त किया जाता है तब प्राय: दोनों जगह उसका अर्थ भिन्न भिन्न होता है । किन्तु उक्त अर्थ में 'वम्मह' का अर्थ दोनों जगह 'ब्रह्म' ले लिया गया है, और उनमें भेद करने के लिए एक में अद्वैत' शब्द अपनीओर से डाला गया है, जिसके लिए मूल में सर्वथा कोई आधार नहीं है । प्राकृत में 'वम्मह ' शब्द 'मन्मथ' के लिए आता है। हैम प्राकृतव्याकरण में इसके लिए एक स्वतंत्र सूत्र भी है - 'मन्मथे वः' ८,१,२४२. इसकी वृत्ति है 'मन्मथे मस्य वो भवति, वम्महो' । इसी के अनुसार हमने अनुवाद किया है, जिसमें कोई दोष नहीं। पृष्ठ १५ ७. शंका - आगमे मूले 'सम्मइसुत्ते' इति लिखितमस्य भवनिरर्थः कृतः 'सम्मतितर्के'। सम्मतितर्काख्यं श्वेताम्बरीयग्रन्थमस्ति, तस्य निर्देश आचार्य: कृत: वा सम्मइसुत्तं नाम किमपि दिगम्बरीयं ग्रंन्थं वर्तते ? (पं. झम्मनलाल जी तर्कतीर्थ, पत्र ता. ४.१.४१) अर्थात् मूल के 'सम्मइसुत्ते' से सम्मति तर्क काअर्थ लिया है जो श्वेताम्बरीय ग्रंथ है । आचार्य ने उसी का उल्लेख किया है या इस नाम का कोई दिगम्बरीय ग्रंथ भी है ?
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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