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________________ २०५ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका की किन्हीं विशेष सांप्रदायिक मान्यताओं से ही हो' यहाँ हमारा यह संकेत यह था कि संभवत: यह श्वेताम्बर और दिगम्बर मान्यता भेद हो और यह बात उक्त प्रस्तावना के अन्तर्गत अंग्रेजी वक्तव्य में मैंने व्यक्त भी कर दी थी कि - "At present I am examining these views a bit more closely. They may ultimately turn out to be the Svetambara and Digambara Schools". उक्त अवतरणों में दक्षिणप्रतिप्रत्ति को 'पवाइज्जमाण' और 'आयरियपरंपरागय' भी कहा है । अब श्री जयधवल में एक उल्लेख हमें ऐसा भी दृष्टिगोचर हुआ है जहां 'पवाइज्जंत' तथा 'आइरियपरंपरागय' का स्पष्टार्थ खोलकर समझाया गया है और अज्जमंखु के उपदेश को वहां 'अपवाइज्जमाण' तथा नागहस्ति क्षमाश्रमण के उपदेश को 'पवाइज्जंत' बतलाया है। यथा - को पुण पवाइज्जंतोवएसो णाम वुत्तमेदं ? सव्वाइरियसम्मदो चिरकालमव्वोच्छिण्णसंपदाय कमेणागच्छमाणो जो सिस्सपरंपराए पवाइज्जदे पण्णविज्जदे सो पवाइज्जंतो वएसो त्ति भण्णदे । अथवा अज्जमंस्वु - भयवंताणमुवएसो एत्थापवाइज्जमाणो णाम । णागहत्थिखवणाणमुवएसो पवाइज्जंतो त्ति धेत्तव्यो । (जयधवला अ.पत्र ९०८) अर्थात् यहां जो ‘पवाइजंत' उपदेश कहा गया है उसका अर्थ क्या है ? जो सर्व आचार्यों को सम्मत हो, चिरकाल से अव्युच्छिन्नसंप्रदाय-क्रम से आ रहा हो और शिष्यपरंपरा से प्रचलित और प्रज्ञापित किया जा रहा हो वह ‘पवाइजंत' उपदेश कहा जाता है । अथवा, भगवान् अजमखु का उपदेश यहां (प्रकृत विषय पर) 'अपवाइजमाण' है, तथा नागहस्तिक्षपण का उपदेश ‘पवाइजंत' है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये । अज्जमखु और नागहस्ति के भिन्न मतोपदेशों के अनेक उल्लेख इन सिद्धान्त ग्रन्थों में पाये जाते हैं, जिनकी कुछ सूचना हम उक्त प्रस्तावना में दे चुके हैं। जान पड़ता है कि इन दोनों आचार्यों का जैन सिद्धान्त की अनेक सूक्ष्म बातों पर मतभेद था। जहां वीरसेनस्वामी के संमुख ऐसे मतभेद उपस्थित हुए, वहां जो मत उन्हें प्राचीन परंपरागत ज्ञात हुआ, उसे 'पवाइजमाण' कहा । तथा जिस मत की उन्हें प्रामाणिक प्राचीन परंपरा नहीं मिली. उसे अपवाइज्जमाण कहा है। प्रस्तुत उल्लेख से अनुमान होता है कि उक्त प्रतिपत्तियों से उनका अभिप्राय किन्हीं विशेष गढ़ी हुई मत धाराओं से नहीं था । अर्थात् ऐसा नहीं था कि किसी एक आचार्य का मत सर्वथा 'अपवाइज्जमाण' और दूसरे का सर्वथा ‘पवाइज्जमाण' हो । किंतु इन्हें दक्षिणप्रतिपत्ति और उत्तरप्रतिपत्ति क्यों कहा है यह फिर भी विचारणीय रह जाता
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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