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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका लक्षा निर्वाणे । तत: पञ्चाशत्सर्वार्थ - सिद्धे । ततो भूयोऽपि चतुर्दश लक्षा निर्वाणे । तत: पुनरपि पंञ्चाशत्सर्वार्थसिद्धे । एवं पञ्चाशत्संख्या का अपि चतुर्दश २ लक्षान्तरितास्तावद्वक्तव्या यावत्तेऽप्यसंख्येया भवन्ति । उक्तंच -
"चोइस लक्खा सिद्धा णिवईणेक्को य होइ सव्वढे। एवेक्कक्के ठाणे पुरिसजुगा होतिऽसंखेज्जा ॥१॥ पुणरपि चोद्दस लक्खा सिद्धा निव्वईण दो वि सव्वढे । दुगठाणऽवि असंखा पुरिसजुगा होतं नायव्वा ॥२॥ जाव य लक्खा चोद्दस सिद्धा पण्णास होतं सव्वढे । पन्नासट्ठाणे वि उ पुरिसजुगा होतिऽसंखेज्जा ॥३॥ एगुत्तरा उ ठाणा सव्वढे चेव जाव पन्नासा। एक्वेक्वंतरठाणे पुरिसजुगा होति असंखेज्जा ॥४॥
इत्यादि इसका तात्पर्य यह है कि ऋषभ और अजित तीर्थकरों के अन्तराल काल में ऋषभ वंश के जो राजा हुए उनकी और गतियों को छोड़कर केवल शिवगति और अनुत्तरोपपात की प्राप्ति का प्रतिपादन करने वाली गंडिका चित्रान्तरगंडिका कहलाती है । इसका पूर्वाचार्यो ने ऐसा प्ररूपण किया है कि सगरचक्रवर्ती के सुबुद्धिनामक महामात्य ने अष्टापद पर्वत पर सगरचक्री के पुत्रोंको भगवान् ऋषभ के वंशज आदित्ययश आदि राजाओं की संख्या इस प्रकार बताई - उक्त आदित्ययश आदि नाभेयवंश के राजा त्रिखंड भरतार्ध का पालन करके अन्त समय पारमेश्वरी दीक्षा धारण कर उसके प्रभाव से सब कर्मों का क्षय करके चौदह लाख निरन्तर क्रम से सिद्धि को प्राप्त हुए और अनन्तर एक सर्वार्थसिद्धि को गया । फिर चौदह लाख निरन्तर मोक्ष को गये और पश्चात् एक फिर सर्वार्थ सिद्धि को गया । इसी प्रकार क्रम से वे मोक्ष और सर्वार्थसिद्धि को तब तक जाते रहे जब तक कि सर्वार्थसिद्धि में एक एक करके असंख्य हो गये । इसके पश्चात् पुन: निरंतर चौदह-चौदह लाख मोक्ष को और दो दो सर्वार्थसिद्धि को तब तक गये जब तक कि ये दो दो भी सर्वार्थसिद्धि में असंख्य हो गये । इसी प्रकार क्रम से फिर चौदह लाख मोक्षगामियों के अनन्तर तीन तीन, फिर चारचार करके पचास पचास तक सर्वार्थसिद्धि को गये और सभी असंख्य होते गये । इसके पश्चात् क्रम बदल गया और चौदह लाख सर्वार्थसिद्धि को जाने के पश्चात् एक एक मोक्ष कोजाने लगा और पूर्वोक्त प्रकार से दो-दो फिर तीन तीन करके पचास तक गये और सब