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________________ १७३ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका - श्वेताम्बर सम्प्रदाय में दृष्टिवाद के चौथे भेद का नाम अणुयोग है जिसके पुन: दो प्रभेद होते हैं, मूलप्रथमानुयोग और गंडिकानुयोग । दिगम्बर सम्प्रदाय में प्रथमानुयोग ही दृष्टिवाद का तीसरा भेद है । अनुयोग का अर्थ समवायांग टीका में इस प्रकार दिया है - अनुरूपोऽनुकूलो वा योगोऽनुयोग: सूत्रस्य निजेनाभिधेयेन सार्द्धमनुरूप: सम्बन्ध इत्यर्थः। अर्थात् - सूत्र द्वारा प्रतिपादित अर्थ के अनुकूल संबंध का नाम ही अनुयोग है । तात्पर्य यह कि जिसमें सूत्र कथित सिद्धांत या नियमों के अनुकूल दृष्टान्त और उदाहरण पाये जावें यह अनुयोग है । उसके दो भेद करने का अभिप्राय नंदी सूत्र की टीका में यह बतलाया गया है कि - इह मूलं धर्मप्रणयनात् तीर्थकरास्तेषां प्रथम: सम्यक्त्वाप्तिलक्षण पूर्वभवादिगोचरोऽनुयोग मूल प्रथमानुयोग: । इक्ष्वादीनां पूर्वापरपर्वपरिच्छिन्नो मध्यभागो गण्डिका, गण्डिकेव गण्डिका, एकार्थाधिकारा ग्रंथपद्धतिरित्यर्थः । तस्या अनुयोगो गण्डिकानुयोगः। .... इसका अभिप्राय यह है कि धर्म के प्रवर्तक होने से तीर्थकर ही मूल पुरुष हैं, अतएव उनका प्रथम अर्थात् सक्यक्त्वप्राप्तिलक्षण पूर्वभव आदि का वर्णन करने वाला अनुयोग मूलप्रथमानुयोग है । और जैसे गन्ने आदि की गंडेरी आजू बाजू की गांठों से सीमित रहती है ऐसे ही जिसमें एक एक अधिकार अलग अलग हो उसे गंडिकानुयोग कहते हैं, जैसे कुलकरगंडिका आदि । किन्तु यह विभाग कोई विशेष महत्व नहीं रखता क्योंकि दोनों में विषय की पुनरावृत्ति पायी जाती है । जैसे तीर्थकर और उनके गणधरों का वर्णन दोनों विभागों में आता है । दिगम्बरों में ऐसा कोई विभाग नहीं किया गया और साफ तौर से बतलाया गया है कि दृष्टिवाद के प्रथमानुयोग में चौबीस अधिकारों द्वारा बारह जिनवंशो और राजवंशों का वर्णन किया गया है दिगम्बर सम्प्रदाय में प्रथमानुयोग का अर्थ इस प्रकार किया गया है - प्रथमं मिथ्यादृष्टिमव्रतिकमव्युत्पन्नं वा प्रतिपाद्यमाश्रित्य प्रवृत्तोऽनुयोगोऽधिकार: प्रथमानुयोग: (गोम्मटसार टीका) इसका अभिप्राय यह है कि 'प्रथम' का तात्पर्य अव्रती और अव्युत्पन्न मिथ्यादृष्टि शिष्य से है और उसके लिये जिस अनुयोग की प्रवृत्ति होती है वह प्रथमानुयोग कहलाता है। इसी के भीतर सब पुराणों का अन्तर्भाव हो जाता है । किन्तु इसका पद-प्रमाण केवल पांच
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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