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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
१४० होने से उनमें एकत्व है, इसलिये एक का यह मंगल शेष तेबीसों में विरोध को प्राप्त नहीं होता । परंतु इन तीनों खंडों में तो एकत्व है नहीं, क्योंकि तीनों में एकत्व मान लेने पर तीनों के एक खंडत्व का प्रसंग आ जाता है ?
समाधान - यह कोई दोष नहीं, क्योंकि - महाकर्म प्रकृति पाहुडत्व की अपेक्षा से इनमें भी एकत्व देखा जाता है।
शंका - कृति, स्पर्श, कर्म और प्रकृति अनुयोग द्वार भी यहां (ग्रंथ के इस भाग में) प्ररूपित किये गये हैं, उनकी भी खंड ग्रंथ संज्ञा न करके तीन ही खंड क्यों कहे जाते हैं?
समाधान - क्योंकि इनमें प्रधानता का अभाव है । शंका - यह कैसे जाना? समाधान - उनका संक्षेप में प्ररूपण किया गया है इससे जाना ।
इस परसे यह बात स्पष्ट समझ में आ जाती है कि उक्त मंगलाचरण का सम्बन्ध बंध-सामित्त और खुद्दाबंध खंडों से बैठाना बिल्कुल निर्मूल, अस्वाभाविक, अनावश्यक और धवलाकार के मत से सर्वथा विरुद्ध है । हम यह भी जान जाते हैं कि वर्गणाखंड और महाबंध के आदि में कोई मंगलाचरण नहीं है, इसी मंगलाचरण का अधिकार उन पर चालू रहेगा । और हमें यह भी सूचना मिल जाती है कि उक्त मंगल के अधिकारान्तर्गत तीनों खंड अर्थात् वेदना, वर्गणा और महाबंध प्रस्तुत अनुयोगद्वारों से बाहर नहीं है। वे किन अनुयागद्वारो के भीतर गर्भित हैं यह भी संकेत धवलाकार यहां स्पष्ट दे रहे हैं। खंड संज्ञा प्राप्त न होने की शिकायत किन अनुयोग द्वारों की ओर से उठाई गई ? कदि, पास, कम्प और पयडि अनुयोग द्वारों की ओर से । वेदणा- अनुयोग द्वारका यहां उल्लेख नहीं है क्योंकि उसे खंड संज्ञा प्राप्त हैं। धवलाकार ने बंधन अनुयोगद्वार का उल्लेख यहां जानबूझकर छोडा है क्योंकि बंधन के ही एक अवान्तर भेद वर्गणा से वर्गणाखंड संज्ञा प्राप्त हुई है और उसके एक दूसरे उपभेद बंधविधान पर महाबंध की एक भव्य इमारत खड़ी है । जीवट्ठाण, खुद्दाबंध और बंधसामित्तविचय भी इसी के ही भेद प्रभेदों के सुफल हैं। इसलिये उन सबसे भाग्यवान पांच-पांच यशस्वी संतान के जनयिता बंधन को खंड संज्ञा प्राप्त न होने की कोई शिकायत नहीं थी । शेष अठारह अनुयोग द्वारों का उल्लेख न करने का कारण यह है कि भूतबलि भट्ठारक ने उनका प्ररूपण ही नहीं किया । भूतबलिकी रचना तो बंधन अनुयोग द्वार के साथ ही, महाबंध पूर्ण होने पर, समाप्त हो जाती है । जैसा हम ऊपर बतला चुके हैं।