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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
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खुद्दाबंध का भी मंगल सिद्ध नहीं किया जा सकता। इस प्रकार यह शंका समाधान विषय को समझाने की अपेक्षा अधिक उलझन में ही डालने वाला है ।
आगे के शंका समाधान की और भी दुर्दशा की गई है। प्रश्न है कृति, स्पर्श, कर्म और प्रकृति अनुयोगद्वार भी यहां प्ररूपित हैं, उनकी खंडसंज्ञा न करके केवल तीन ही खंड क्यों कहे जाते हैं ? यहां स्वभावतः यह प्रश्न उपस्थित होता है कि यहां कौन से तीन खंडों का अभिप्राय है ? यदि यहां भी उन्हीं खुद्दाबंध, बंधसामित्त और वेदना का अभिप्राय है तो यह बतलाने की आवश्यकता है कि प्रस्तुत में उनकी क्या अपेक्षा है । यदि चौबीस अनुयोग द्वारों में से उत्पत्ति की यहां अपेक्षा है तो जीवस्थान, वर्गणा और महाबंध भी तो वहीं से उत्पन्न हुए हैं, फिर उन्हें किस विचार से अलग किया गया ? और यदि वेदना, वर्गणा और महाबंध से ही यहां अभिप्राय है तो एक तो उक्त क्रम में भंग पड़ता है और दूसरे वर्गणाखंड के भी इन्हीं अनुयोग द्वारों में अन्तर्भाव का प्रसंग आता है । जिन अनुयोग द्वारों की ओर से खंड संज्ञा प्राप्त न होने की शिकायत उठायी गई है उनमें वेदना का नाम नहीं है । इससे जाना जाता है कि इसी वेदना अनुयोगद्वार पर से वेदनाखंड संज्ञा प्राप्त हुई है । पर यदि 'एत्थ' का तात्पर्य 'इस वेदनाखंड में" ऐसा लिखा जाता है तब तो यह भी मानना पड़ेगा कि वे तीनों खंड जिनका उल्लेख किया गया है, वेदनाखंड के अन्तर्गत है । पयड के आगे बन्धन और क्यों अपनी तरफ से जोड़ा गया जबकि वह मूल में नहीं है, यह भी कुछ समय हीं आता । इस प्रकार यह प्रश्न भी बड़ी गड़बड़ी उत्पन्न करने वाला सिद्ध होता है ।
अतः वेदनाखंड के आदि में आये हुए मंगलचरण को खुद्दाबंध और बंधसामित्त का भी सिद्ध करना तथा कृति आदि चौबीसों अनुयोग द्वारों को वेदनाखंडान्तर्गत बतलाना बड़ा बेतुका, वे आधार और सारे प्रसंग को गड़बड़ी में डालने वाला है । यह सब कल्पना किन भूलों का परिणाम है और उक्त अवतरणों का सच्चा रहस्य क्या है यह आगे चलकर बतलाया जायगा । उससे पूर्व शेष तीन युक्तियों पर और विचार कर लेना ठीक होगा । ४. वेदनाखंड समाप्ति की पुष्पिका
धवला में जहां वेदना का प्ररूपण समाप्त हुआ है यहां वह वाक्य पाया जाता है एवं वेयण-अप्पाबहुगाणिओगद्दारे समत्ते वेयणाखंड समत्ता ।
इसके आगे कुछ नमस्कार वाक्यों के पश्चात् पुनः लिखा मिलता है 'वेदनाखंड समाप्तम्' । ये नमस्कार वाक्य और उनकी पुष्पिका तो स्पष्टतः मूलग्रंथ के अंग नहीं है, वे लिपिकार द्वारा जोड़े गये जान पड़ते हैं। प्रश्न है प्रथम पुष्पिकाका जो मूल ग्रंथ का आवश्यक