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________________ १३१ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका (एत्थ)- इस वेदनाखंड में प्ररूपण किया गया है उन्हें खंडग्रंथ संज्ञा न देने का कारण उनके प्रधानता का अभाव है, जो कि उनके संक्षेप कथन से जाना जाता है । उक्त फास आदि अनुयोग द्वारों में से किसी के भी शुरू में मंगलाचरण नहीं है और इन अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा वेदना खंड में की गई है, तथा इनमें से किसी को खंडग्रंथ की संज्ञा नहीं दी गई यह बात ऊपर के शंका समाधान से स्पष्ट है।" अब इस कथन पर विचार कीजिये । 'उबरि उच्चमाणेसु तिसु खंडेसु' का अर्थ किया गया है 'ऊपर कहे हुए तीन खंड, अर्थात् वेदना, बंधसामित्त और खुद्दाबंध' । हमें यहां पर यह याद रखना चाहिये कि खुद्दाबंध और बंधसमिति खंड दसरे और तीसरे हैं जिनका प्ररूपण हो चुका है, और अभी वेदनाखंड के केवल मंगलाचरण का ही विषय चल रहा है, खंड का विषय आगे कहा जायगा । 'उवरि उच्चमाण' की संस्कृत छाया, जहां तक मैं समझता हूँ 'उपरि उच्यमान' ही हो सकती है, जिसका अर्थ 'ऊपर कहे हुए' कदापि नहीं हो सकता । 'उच्चमान' का तात्पर्य केवल प्रस्तुत या आगे कहे जाने वाले से ही हो सकता है। फिर भी यदि 'ऊपर कहे हए' ही मान लें तो उससे ऊपर के दो और आगे के एक का समुच्चय कैसे हो सकता है ? ऊपर कहे हुए तीन खंड तो जीवट्ठाण आदि तीन हैं, बाकी तीन आगे कहे जाने वाले हैं । इस प्रकार उपर्युक्त वाक्य का जो अर्थ लगाया गया है वह बिल्कुल ही असंगत है। अब आगे का शंका-समाधान देखिये । प्रश्न है यह कैसे जाना कि यह मंगल 'उवरि उच्चमाण' तीनों खंडों का है ? इसका उत्तर दिया जाता है क्योंकि वर्गणा और महाबंध के आदि में मंगल किया गया है' । यदि यहां जिन खंडों में मंगल किया गया है उनको अलग निर्दिष्ट कर देना आचार्य का अभिप्राय था तो उनमें जीवट्ठाण का भी नाम क्यों नहीं लिया, क्योंकि तभी तो तीन खंड शेष रहते, केवल वर्गणा और महाबंध को अलग कर देने से तो चार खंड शेष रह गये । फिर आगे कहा गया है कि मंगल किये बिना भूतबलि भट्ठारक ग्रंथ प्रारंभ ही नहीं करते, क्योंकि उससे अनाचार्यत्व का प्रसंग आ जाता है । पर उक्त व्यवस्था के अनुसार तो यहां एक नहीं, दो-दो खंड मंगल के बिना, केवल प्रारंभ ही नहीं, समाप्त भी किये जा चुके; जिनके मंगलाचरण का प्रबंध अब किया जा रहा है, जहां स्वयं टीकाकार कह रहे हैं कि मंगलाचरण आदि में ही किया जाता है, नहीं तो अनाचार्यत्व का दोष आ जाता है। इससे तो धवलाकारका मत स्पष्ट है कि प्रस्तुत ग्रंथरचना में आदि मंगल का अनिवार्य रूप से पालन किया गया है । हमने आदिमंगल के अतिरिक्त मध्यमंगल और अन्तमंगल का भी विधान पढ़ा है। किन्तु इन प्रकारों में से किसी भी प्रकार द्वारा वेदनाखंड के आदि का मंगल
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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