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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
११५ देवकीर्ति पद्यनन्दिसे पांच पीढ़ी, कुलभूषण से चार और कुलचन्द्र से तीन पीढ़ी पश्चात् हुए हैं । अत: इन आचार्यों को उक्त समय से १००-१२५ वर्ष अर्थात् शक ९५० के लगभग हुए मानना अनुचित न होगा । न्यायकुमुदचन्द्र की प्रस्तावना के विद्वान् लेखक ने अत्यन्त परिश्रमपूर्वक उस ग्रन्थ के कर्ता प्रभाचन्द्र की समय की सीमा ईस्वी सन् ९५० और १०२३ अर्थात् शक ८७२ और ९४५ के बीच निर्धारित की है । और, जैसा ऊ पर कहा जा चुका है, ये प्रभाचन्द्र वे ही प्रतीत होते हैं जो लेख नं. ४० में पद्यनन्दि के शिष्य और कुलभूषण के सधर्म कहे गए हैं। इससे भी उपर्युक्त काल निर्णय की पुष्टि होती है । उक्त आचार्यों के कालनिर्णय में सहायक एक और प्रमाण मिलता है । कुलचन्द्रमुनि के उत्तराधिकारी माघनन्दि कोल्लापुरीय कहे गये हैं। उनके एक गृहस्थ शिष्य निम्बदेव सामन्त ' का उल्लेख मिलता है जो शिलाहार नरेश गंडरादित्यदेव के एक सामन्त थे । शिलाहार गंडरादित्यदेव के उलेख शक सं. १०३० से १०५८ तक के लेखों में पाये जाते हैं। इससे भी पूर्वोक्त कालनिर्णय की पुष्टि होती है।
पद्यनन्दि आदि आचार्यों की प्रशस्ति के सम्बन्धों में अब केवल एक ही प्रश्न रह जाता है, और वह यह कि उसका धवला की प्रति में दिये जाने का अभिप्राय क्या है ? इसमें तो संदेह नहीं कि वे पद्य मूडविद्रीकी ताडपत्रीय प्रति में हैं और उन्हीं पर से प्रचलित प्रतिलिपियों में आये हैं। पर वे धवल के मूल अंश या धवलाकार के लिखे हुए तो हो ही नहीं सकते । अत: यही अनुमान होता है कि वे उस ताड़पत्रवाली प्रति के लिखे जाने के समय या उससे भी पूर्व की जिस प्रति पर से लिखी गई होगी उसके लिखने के समय प्रक्षिप्त किये गये होंगे । संभवत: कुलभूषण या कुलचन्द्र सिद्धान्त मुनि की देख-रेख में ही वह प्रतिलिपि की गई होगी । यदि विद्यमान ताड़पात्र की प्रति लिखने के समय ही वे पद्य डाले गये हों, तो कहना पड़ेगा कि वह प्रति शक की दशवीं शताब्दि के मध्य भाग के लगभग लिखी गई है। इन्हीं प्रतियों में से कहीं एक और कहीं दो के प्रशस्त्यात्मक पद्य धवला की प्रति में और बीच बीच में पाये जाते हैं जिनका परिचय व संग्रह आगे यथावसर देने का प्रयत्न किया जायेगा।
१. जैन शिलालेखसंग्रह, लेख नं. ४० २. Sukrabara Basti Inscription of Kolhapur, in Graham's Statistical Re
port on Kolhapur. न्यायकुमुदचन्द्र, भूमिका पृ.११४ आदि.