SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 126
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका १०२ जाते, किंतु जो हिन्दी गुजराती, मराठी आदि आधुनिक भाषाओं में सुप्रचलित हुए । अन्तयमक अर्थात् तुकबंदी इन छन्दों की एक बड़ी विशेषता है। दोहा, चौपाई आदि छन्द यहां से हिन्दी में आये । अपभ्रंश का उदाहरण सुहु सारउ मणुयत्तणहं तं सुहु धम्मायत्तु । विजय तं करहि जं अरहंतई वुत्तु ॥ सावयधम्मदोहा ॥ ४ ॥ अर्थात् सुख मनुष्यत्व का सार है और वह सुख धर्म के अधीन है। रे जीव ! वह धर्म कर जो अरहंत का कहा हुआ है । इन विशेष लक्षणों के अतिरिक्त स्वर और व्यंजन सम्बंधी कुछ विलक्षणताएं सभी प्राकृतों में समान रूप से पाई जाती है । जैसे, स्वरों में ऐ और औ, क्रु और लृ का अभाव और उनके स्थान पर क्रमश: अइ, अउ, अथवा ए, ओ, तथा अ या इ का आदेश; मध्यवर्ती व्यंजनों में अनेक प्रकार के परिवर्तन व उनका लोप, संयुक्त व्यंजनों का असंयुक्त या द्विस्वरूप परिवर्तन, पंचमाक्षर इ., ञ् आदि सबके स्थान पर हलन्त अवस्था में अनुस्वार व स्वरसहित अवस्था में ण में परिवर्तन । ये परिवर्तन प्राकृत जितनी पुरानी होगी उतने कम और जितनी अर्वाचीन होगी उतनी अधिक मात्रा में पाये जाते हैं । अपभ्रंश भाषा में ये परिवर्तन अपनी चरम सीमापार पहुंच गये और वहां से फिर भाषा के रूप में विपरिवर्तन हो चला । इन सब प्राकृतों में प्रस्तुत ग्रंथ की भाषा का ठीक स्थान क्या है इसके पूर्णत: निर्णय करने का अभी समय नहीं आया, क्योंकि, समस्त धवल सिद्धान्त अमरावती की प्रति के १४६५ पत्रों में समाप्त हुआ है। प्रस्तुत ग्रंथ उसके प्रथम ६५ पत्रों मात्र का संस्करण है, अतएव यह उसका बाईसवां अंश है। तथा धवला और जयधवला को मिलाकर वीरसेन की रचना का यह केवल चालीसवां अंश बैठेगा । सो भी उपलभ्य एकमात्र प्राचीन प्रतिकी अभी-अभी की हुई पांचवी छठवीं पीढ़ी की प्रतियों पर से तैयार किया गया है और मूल प्रति के मिलान का सुअवसर भी नहीं मिल सका। ऐसी अवस्था में इस ग्रंथ की प्राकृत भाषा व व्याकरण के विषय में कुछ निश्चय करना बड़ा कठिन कार्य है, विशेषत: जब कि प्राकृतों का भेद बहुत कुछ वर्ण विपर्यय के ऊपर अवलम्बित है । तथापि इस ग्रंथ के सूक्ष्म अध्ययनादि
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy