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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
उदाहरणार्थ - सव्वायरेण चलणे गुरुस्स नमिऊण दसरहो राया। पबिसरइ नियय-नयरि साएयं जण-धणाइण्णं ॥
(पउम. च. ३१, ३८, पृ. १३२.) अर्थात् सब प्रकार से गुरु के चरणों को नमस्कार करके दशरथ राजा जन-धनपरिपूर्ण अपनी नगरी साकेत में प्रवेश करते हैं। अपभ्रंश
क्रम विकास की दृष्टि से अपभ्रंश भाषा प्राकृत का सबसे अन्तिम रूप है, उससे आगे फिर प्राकृत वर्तमान हिन्दी, गुजराती, मराठी आदि भाषाओं का रूप धारण कर लेती है। इस भाषा पर भी जैनियों का प्राय: एकछत्र अधिकार रहा है। जितना साहित्य इस भाषा का अभी-तक प्रकाश में आया है उसमें का कम से कम तीन चौथाई हिस्सा दिगम्बर जैन साहित्य का है। कुछ विद्वानों का ऐसा मत है कि जितनी प्राकृत भाषाएं थीं उन सबका विकसित होकर एक-एक अपभ्रंश बना । जैसे, मागधी अपभ्रंश, शौरसेनी अपभ्रंश, महाराष्ट्री अपभ्रंश आदि । बौद्ध चर्यापदों व विद्यापति की कीर्तिलता में मागधी अपभ्रंश पाया जाता है। किन्तु विशेष साहित्यिक उन्नति जिस अपभ्रंश की हुई वह शौरसेनी महाराष्ट्री मिश्रित अपभ्रंश है, जिसे कुछ वैयाकरणों ने नागर अपभ्रंश भी कहा है, क्योंकि, किसी समय संभवत: वह नागरिक लोगों की बोलचाल की भाषा थी । पुष्पदन्तकृत महापुराण, णायकुमारचरिउ, जसहरचरिउ, तथा अन्य कवियों के करकंडचरिउ, भविसयत्तकहा, सणकुमारचरिउ, सावयधम्मदोहा, पाहुडदोहा, इसी भाषा के काव्य है। इस भाषा को अपभ्रंश नाम वैयाकरणों ने दिया है, क्योंकि वे स्थितिपालक होने से भाषा के स्वाभाविक परिवर्तन को विकाश न समझकर विकार समझते थे। पर इस अपमानजनक नामको लेकर भी यह भाषा खूल फलीफूली और उसी की पुत्रियां आज समस्त उत्तर भारत का काजव्यवहार सम्हाले हुए है।
इस भाषा की संज्ञा व क्रिया की रूपरचना अन्य प्राकृतों से बहुत कुछ भिन्न हो गई है । उदाहरणार्थ, कर्ता व कर्म कारक एकवचन, उकारान्त होता है जैसे, पुत्रो, पुत्रम्पुतु; पुत्रेण-पुत्ते; पुत्राय, पुत्रात्, पुत्रस्य-पुत्तहु; पुत्र-पुत्ते, पुत्ति, पुत्तहिं, आदि ।
क्रिया में, करोमि-करउं; कुर्वन्ति-करहिं; कुरुथ-करहु, आदि । इसमें नये-नये छन्दों का प्रादुर्भाव हुआ जो पुरानी संस्कृत व प्राकृत में नहीं पाये