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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका ९. चक्षु, अचक्षु, अवधि और केवल ये दर्शन के चार भेद हैं। १०. कपायसे अनुरंजित योगों की प्रवृत्ति व शरीर के वर्गों का नाम लेश्या है इसके छह भेद हैं - कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल । ११. जिस शक्ति के निमित्त से आत्मा के दर्शन, ज्ञान और चारित्र गुण प्रगट होते हैं उसे भव्यत्व कहते हैं । तदानुसार जीव भव्य व अभव्य होते हैं। १२. तत्वार्थ के श्रद्धान का नाम सम्यक्त्व है, और दर्शनमोह के उपशम, क्षयोपशम क्षायिक, सम्यगमिथ्यात्व, सासादन व मिथ्यात्वरूप भावों के अनुसार सम्यक्त्वमार्गणा के छह भेद हो जाते हैं। १३. मनके द्वारा शिक्षादि के ग्रहण करने को संज्ञा कहते हैं और ऐसी संज्ञा जिसमें हो वह संज्ञी कहलाता है । तदनुसार जीव संज्ञी व असंज्ञी होते हैं। १४. औदारिक आदि शरीर और पर्याप्त के ग्रहण करने को आहार कहते हैं। तदनुसार जीव आहारक और अनाहारक होते हैं। इन चौदह गुणस्थानों और मार्गणाओं का प्ररूपण करने वाले सत्प्ररूपणा के अन्तर्गत १७७ सूत्र हैं जिनका विषयक्रम इस प्रकार है। प्रथम सूत्र में पंचपरमेष्ठी को नमस्कार किया है। आगे के तीन सूत्रों में मार्गणाओं का प्रयोजन बतलाया गया है और उनका गति आदि नाम निर्देश किया गया है । ५, ६, और ७ वें सूत्र में मार्गणाओं के प्ररूपण निमित्त आठ अनुयोग द्वारों के जानने की आवश्यकता बताई है और उनके सत्, द्रव्यप्रमाण (संख्या) आदि नामनिर्देश किये हैं। ८ वें सूत्र से इन अनुयोग द्वारों में से प्रथम सत् प्ररूपणा का विवरण प्रारम्भ होता है जिसके आदि में ही ओघ और आदेश अर्थात् सामान्य और विशेष रूप से विषय का प्रतिपादन करने की प्रतिज्ञा करके मिथ्यादृष्टि आदि चौदह गुणस्थानों का निरूपण किया है जो ९ वें सूत्र से २३ वें सूत्र तक चला है। २४ वें सूत्र से विशेष अर्थात् गति आदि मार्गणाओं का विवरण प्रारम्भ हुआ है जो अन्त तक अर्थात् १७७ वें सूत्र तक चलता रहा है । गति मार्गणा ३२ वें सूत्र तक हैं। यहां पर नरकादि चारों गतियों के गुणस्थान बतलाकर यह प्रतिपादन किया है कि एकेन्द्रिय से असंज्ञी पंचेन्द्रियतक शुद्ध तिर्यंच होते हैं, संज्ञी मिथ्यादृष्टि से संयतासंयत गुणस्थान तक मिश्र तिर्यंच होते हैं, और इसी प्रकार मनुष्य भी। देव और नारकी असंयत गुणस्थानतक मिश्र अर्थात् परिणामों की अपेक्षा दूसरी तीन गतियों के जीवों के साथ समान होते हैं। प्रमत्तसंयत से आगे शुद्ध मनुष्य होते हैं । ३३वें
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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