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________________ परिशिष्ट जैन धर्म : एक परिचय (सार-संक्षेप) –महोपाध्याय ललितप्रभ सागर उद्भव और विकास : जैन धर्म जीवन-मूल्यों की नैतिक प्रेरणा देने वाला एक स्वच्छ और अहिंसक धर्म है। जैन शब्द 'जिन' से बना है, जिसका अर्थ है विजेता। वे शलाका-पुरुष जिन हैं जिन्होंने अपने विकारों और कषायों को जीतकर पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया है । जैन वह है जो 'जिन' अर्थात् 'वीतराग' द्वारा प्ररूपित मार्ग का अनुसरण करता है। जैन धर्म अनादि है और सृष्टि के साथ ही आविर्भूत हुआ है । यह धर्म जितना प्राचीन है उतना ही सजीव, सक्रिय एवं प्रगतिशील भी रहा है। इसके प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव हैं । जिस विकसित युग में हम जी रहे हैं उसके विकास का प्रथम श्रेय ऋषभदेव को ही है। उन्होंने मानवता को एक ओर जहाँ आध्यात्मिक उन्नति की प्रेरणा दी, वहीं दूसरी ओर लोक-जीवन के बहुमुखी विकास में भी मार्गदर्शन दिया । जैन धर्म के अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर २६०० वर्ष पूर्व हो गये हैं । तथागत बुद्ध इन्हीं के समकालीन थे। भगवान् के २५० वर्ष पूर्व तेइसवें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ हुए हैं जिनका निर्वाण सम्मेंत शिखर (बिहार) में हुआ था । अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर का नाम विशेष रूप से इसलिए लिया जाता है क्योंकि समय के साथ-साथ उन्होंने धर्म को एक निश्चित सूत्र में बाँधा। संदेश और अवदान : जैन धर्म ने सम्पूर्ण मानव जाति को मुख्य रूप से पाँच संदेश दिये हैं अहिंसा—किसी को कष्ट या हानि न पहुँचाओ, सत्य-झूठ से परहेज रखो, अचौर्य—बिना दिये किसी चीज को स्वीकार न करो, अपरिग्रह-जरूरत से ज्यादा संग्रह मत करो और ब्रह्मचर्य-अपनी पवित्रता को कायम रखो । भगवान् की ये पाँच शिक्षाएँ जहाँ समाज के सुसंचालन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं वहीं मनुष्य को जिनसूत्र/७३
SR No.002278
Book TitleJinsutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabh
PublisherJain Shwe Nakoda Parshwanath Tirth
Publication Year2001
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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