________________
१३. सम्यग्दर्शनसूत्र १२९. सम्मत्तरयणसारं, मोक्खमहारुक्खमूलमिदि भणियं ।
तं जाणिज्जइ णिच्छय-ववहारसरूव-दोभेयं ॥१॥ रत्नत्रय में सम्यग्दर्शन श्रेष्ठ है और इसको मोक्षरूपी महावृक्ष का मूल कहा गया है । यह निश्चय और व्यवहार के रूप में दो प्रकार का है।
१३०.
जीवादी सद्दहणं, सम्मत्तं जिणवरेहिं पण्णत्तं । ववहारा णिच्छयदो, अप्पा णं हवइ सम्मत्तं ।।२।। व्यवहारदृष्टि से जीव आदि,तत्त्वों के श्रद्धान को जिनदेव ने सम्यक्त्व कहा है। निश्चय से तो आत्मा ही सम्यग्दर्शन है।
१३१. जं मोणं तं सम्मं, जं सम्मं तमिह होइ मोणं ति।
निच्छयओ इयरस्स उ सम्मं सम्मत्तहेऊ वि॥३॥ निश्चय से जो मौन है वही सम्यग्दर्शन है और जो सम्यग्दर्शन है वही मौन है। . व्यवहार से जो निश्चय-सम्यग्दर्शन के हेतु हैं, वे भी सम्यग्दर्शन हैं।
१३२. निस्संकिय निक्कंखिय निव्वितिगिच्छा अमूढदिट्ठी य।
उवबूह थिरीकरणे, वच्छल्ल पभावणे अट्ठ ॥४॥ निःशंका (संशयरहित), निष्कांक्षा (आकांक्षारहित), निर्विचिकित्सा (जुगुप्सारहित), अमूढ़दृष्टि (निर्धान्त दृष्टि), उपगूहन (आत्म-नियन्त्रण), स्थिरीकरण (सुदृढ़ता), वात्सल्य और प्रभावना (धर्म-विस्तार)—सम्यग्दर्शन के ये आठ अंग हैं।
१३३. सम्मत्तविरहिया णं, सुट्ठ वि उग्गं तवं चरंता णं।
ण लहंति बोहिलाहं, अवि वाससहस्सकोडीहिं ॥५॥ सम्यक्त्वविहीन व्यक्ति हजारों-करोड़ वर्षों तक भली भाँति उग्र तप करने पर भी बोधिलाभ प्राप्त नहीं करता।
१३४. दंसणभट्टा भट्ठा, दंसणभट्ठस्स णत्थि णिव्वाणं।
सिझंति चरियभट्टा, दंसणभट्ठा ण सिझंति ।।६।।
जिनसूत्र/३२