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________________ ज्ञान और क्रिया के संयोग से ही फल की प्राप्ति कही गई है, जैसे कि पंगु और अन्धे के मिलन पर दोनों पारस्परिक सहयोग से वन से नगर में प्रविष्ट हो जाते हैं । आखिर, एक पहिये से रथ नहीं चलता । १२४. सम्मद्दंसणणाणं, एसो लहदि त्ति णवरि ववदेसं । सव्वणयपक्खरहिदो, भणिदो जो सो समयसारो ||६ ॥ जो सब नय-पक्षों से रहित है वही समयसार है, उसी को सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञान की संज्ञा प्राप्त होती है । १२५. दंसणणाणचरिताणि, सेविदव्वाणि साहुणा णिच्चं । ताणि पुण जाण तिणि वि, अप्पाणं चेव णिच्छयदो ॥७ ॥ साधु को नित्य दर्शन, ज्ञान और चारित्र का पालन करना चाहिए । निश्चयदृष्टि से इन तीनों को आत्मा ही समझना चाहिए। ये तीनों आत्मस्वरूप ही हैं । अतः निश्चय से आत्मा का सेवन ही उचित है । १२६. णिच्छयणयेण भणिदो, तिहि तेहिं समाहिदो हु जो अप्पा | ण कुणदि किंचि वि अन्नं, ण मुयदि सो मोक्खमग्गो त्ति ॥८ ॥ जो आत्मा इन तीनों से समाहित हो जाता है, न अन्य कुछ करता है और न कुछ छोड़ता है, उसी को निश्चयनय से मोक्षमार्ग कहा गया है I १२७. अप्पा अप्पम्मि रओ, सम्माइट्ठी हवेइ फुडु जीवो | जाणइ तं सण्णाणं, चरदिह चारितमग्गु त्ति ॥९ ॥ इस दृष्टि से आत्मा में लीन आत्मा ही सम्यग्दृष्टि होता है । जो आत्मा को यथार्थरूप में जानता है वही सम्यग्ज्ञान है, और उसमें स्थित रहना ही सम्यक् चारित्र है । १२८. आया हु महं नाणे, आया मे दंसणे चरित्ते य । आया पच्चक्खाणे, आया मे संजमे जोगे ॥ १० ॥ I आत्मा ही मेरा ज्ञान है । आत्मा ही दर्शन और चारित्र है । आत्मा ही प्रत्याख्यान (नियम) है और आत्मा ही संयम और योग है । अर्थात् ये सब आत्मरूप ही हैं । रत्नत्रयसूत्र / ३१
SR No.002278
Book TitleJinsutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabh
PublisherJain Shwe Nakoda Parshwanath Tirth
Publication Year2001
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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