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( ८ ) . . अनुसार ही अर्थ का स्वरूप निर्धारित करता है। वस्तुतः कोई एक निश्चित अर्थ शब्द का है ही नहीं । यथा
प्रतिनियतवासनावशेनैव प्रतिनियताकारोऽर्थः, तत्त्वतस्तु कश्चिदपि नियतो नाभिधीयते-वाक्य० २, १३६
अतएव स्पष्ट है कि वक्ता अपनी बुद्धि के अनुरूप अर्थ में शब्द का प्रयोग करता है, किन्तु भिन्न-भिन्न श्रोता अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार शब्द का पृथक-पृथक् अर्थ ग्रहण करते हैं। ऐसी अवस्था में अर्थबोध के लिए संकेतग्रहण अत्यावश्यक है। संकेत-ग्रहण के अभाव में अर्थबोध की कोई भी व्यवस्था संभव नहीं है। आचार्यों ने संकेत-ग्रहण के उपायों का वर्णन करते हुए कहा है
शक्तिग्रहं व्याकरणोपमानकोशाप्तवाक्याद् व्यवहारतश्च । वाक्यस्य शेषाद् विवृतेर्वदन्ति सान्निध्यतः सिद्धपदस्य वृद्धाः ।।
अर्थात्-व्याकरण, उपमान, कोश, आप्तवाक्य, व्यवहार, वाक्यशेष, विवरण और प्रसिद्ध शब्द के सान्निध्य से संकेत-ग्रहण होता है। इनमें व्याकरण यौगिक शब्दों का व्युत्पत्ति द्वारा संकेत-ग्रहण कराने की क्षमता रखता है, पर रूढ़ और योगरूढ़ शब्दों का संकेत-ग्रहण व्याकरण द्वारा संभव नहीं। अतः कोश ही एक ऐसा उपाय है, जो सिद्ध, असिद्ध, यौगिक, रूढ़ या योगरूढ़ आदि सभी प्रकार के शब्दों का संकेत-ग्रहण करा सकता है। ___ कोशज्ञान शब्दों के संकेत को समझने के लिए अत्यावश्यक है। साहित्य में शब्द और शब्दों के उचित प्रयोगों की जानकारी के अभाव में रसास्वादन का होना संभव नहीं है। अतएव शब्दों के अभिधेय बोध के लिए कोश व्याकरण से भी अधिक उपयोगी है। कोश द्वारा अवगत वास्तविक वाच्यार्थ से ही लक्ष्य एवं व्यंग्यार्थ का अवबोध होता है।
शब्दकोषों की परम्परा 'संस्कृत भाषा में कोशग्रन्थ लिखने की परम्परा बहुत प्राचीन है । वैदिक युग में ही कोशविषय पर ग्रन्थ लिखे जाने लगे थे। वेद-मन्त्रों के द्रष्टा ऋषिमहर्षि कोशकार भी थे । प्राचीन कोश ग्रन्थों के उद्धरणों को देखने से अवगत होता है कि प्राचीन कोश परवर्ती कोशों की अपेक्षा सर्वथा भिन्न थे। पुरातन समय में व्याकरण और कोश का विषय लगभग एक ही श्रेणी का था, दोनों ही शब्दशास्त्र के अंग थे।